मां पर कविता : जरा मुस्कुरा दो

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संजय वर्मा "दृष्टी "
 
जरा मुस्कुरा दो मां 
तेरा आंचल मेरे चेहरे पर डाल 
जब आंचल खींच बोलती "ता"
खिलखिलाहट से गूंज उठता घर 
 
गोदी में झूला-सा अहसास 
मीठी लोरी माथे पर थपकी 
अपलक निहारने नींद को बुलाने 
आ जाने पर नरम स्पर्श से 
माथे को चूमना 
 
आंगन में तुलसी-सी मां 
मेरी तोतली जुबान पर मुस्कुराती मां
क्योंकि मैंने तुतलाती जुबान से 
पहला शब्द बोला "मां "
जैसे बछड़ा बिना सिखाए 
रम्भाता "मां "
 
दुआओं का अनुराग लिए 
रिश्ते-नातों का पाठ सिखलाती मां 
खाना खा ले की पुकार लगाना 
जैसे मां का रोज का कार्य हो 
 
वर्तमान भले बदला 
मां की जिम्मेदारियां नहीं बदली 
अब भी मेरे लिए सदा खुश रहने की 
मांगती रहती है ऊपर वाले से दुआ 
 
रात हो गई अभी तक नहीं आया की 
करती रहती है फिक्र रोज मां 
ऐसी पावन होती है मां 
खुद चुपके से रोकर हमें हंसाने वाली मां 
पिता के डाटने पर मेरी पक्ष धर होती मां
 
मां कभी न रूठना तुम 
सदैव मुस्कुराना मां  
मैं अब बड़ा हो गया हूं किंतु 
मां की नजरों में रहूंगा सदैव ही छोटा
  
मां को मेरी चिंता में 
मैं कहता मां से जब भी जरा मुस्कुरा दो 
वो मुस्कुरा के माथे पे हाथ फेर कहती
कितना बड़ा हो गया अब मेरा बेटा 
क्योंकि बड़ी-बड़ी बातें मुझे समझाने की 
मुझसे बातें जो करने लगा है 
 
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