कविता : चारों तरफ आग

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राजकुमार कुम्भज
चारों तरफ आग
चारों तरफ लोहा ही लोहा 
तप रही, तप रही, सुलग रही आग
 
गल रहा, गल रहा लोहा, ढल रही तलवार
किंतु आदमी की तलवार
किंतु आदमी की ही गरदन

किंतु आदमी ही आदमी का शिकार
किंतु नहीं आदमी, पक्ष आदमी का
 
बीच में बड़े-बड़े अद्वितीय जंगल
सभ्यता, असभ्यता, असामान्यता के
जंगल जलाए जा चुके थे
 
पशु-पक्षी सबके सब मारे जा चुके थे
विनम्रता थी कि थम चुकी थी बारिश
फिर भी चारों तरफ आग।
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