-ऋचा दीपक कर्पे,
कितना कुछ कहना चाहती हैं
और कितना कुछ सुनना चाहती हैं
ये दीवारें..!
इन्हीं का सहारा लेकर
वे नन्हे कदम पहली बार चले थे..
इन्ही दीवारों के पीछे
चुपके-से दो दिल मिले थे!
दीवारों ने सुनी थी वो प्यार भरी बातें
भावनाओं की डोर में उलझे
वे रिश्ते वे नाते..!
बचपन में इनके सहारे
हमने ताश के महल बनाए
गुड्डे-गुडियों के घर सजाए
इन्ही से टिक कर बूढ़ी हड्डियों ने
अपनी यादें बांटीं, अनुभव सुनाए
इन्हीं पर सजावटें कर जन्मदिन मनाए,
शहनाइयां गूंजी,शादी के मंडप लगाए
और बंदनवार गाए ।
दीवारों ने भी कभी
हंसी के ठहाके सुने थे,
इन्हीं के घेरे में
हमने अपने सपने बुने थे।
हर जश्न सारे त्योहार साथ मनाये थे,
होली के रंग बिखेरे थे,
दीपावली के दिये जलाए थे।
स्वागत गीत गए थे दीवारों ने
जब दुल्हन पहली बार घर आई थी
और फूट फूटकर रोईं थी
जब घर की लाड़ली की बिदाई थी..।
हंसी की फुहारों से, प्यार भरी मनुहारों से
गूंज उठती, जी उठती थी दीवारें !
आज कितनी अकेली हैं ये
अपने मन की किसे कहें,
किसको पुकारें??
हम तो बस दुनियादारी में उलझे पड़े हैं,
हजारों समस्याओं के बीच खडे़ हैं!
अब हम इन दीवारों को
अपने सुख-दुःख कहां सुनाते हैं?
शादी हो, या जश्न हो जन्मदिन का
अब हर खुशी बाहर ही मनाते हैं।
छुट्टियां लगते ही
दीवारों के मन में एक आस जगती है
अब ये सब घर पर रहेंगे
कुछ मेरी सुनेंगे, कुछ मुझसे कहेंगे..
लेकिन छुट्टियां लगते ही
इन दीवारों को ताले में कैद कर...
हम निकल पड़ते हैं कभी झीलों-पहाड़ों
तो कभी समुंदर के किनारों पर...
कितने समय बाद
हमने इन दीवारों के साथ
अपना वक्त बिताया है!
फिर से लगी हैं
शतरंज की बाजियां, कैरम के दाव
और बिखरे हैं ताश के रंग!
पुरानी तस्वीरें देख यादें बाट रहें हैं
हम फिर इन दीवारों के संग।
खुश हैं ये दीवारें
कि आज पूरा दिन हमारे नाम है,
न कोई जल्दी, न कोई हड़बड़ी
बस आराम ही आराम है।
माना आज हर तरफ सन्नाटा है,
कठिन समय, मुश्किल घड़ी है
लेकिन "क्वारंटाईन" के इस संकट में
दीवारें फिर हंस पड़ी हैं..!