विवेक हिरदे,
हरियाली की डोर को थामे रखो मनमीत
धरा से उड़ा हरा रंग तो खो जाएंगे मधुरगीत।
अभी रोक लें व्यर्थ जल को मिल हम और तुम
कल की नस्लें न तोड़ दें मरुभूमि में दम।
पौधारोपण सब करें, न सहेज रखें उन्हें कोय
जो सहेजे बोए पौधों को, तो सूखा काहे होए।
प्रगति के नाम पर, देखो राजा करे विकास
वृक्षों की बलि दे-देकर जीवन का होता नाश।
सीमेंट की धूसरित सड़कों से राह भुला है जल
घर घर इंटरलॉकिंग से माटी हुई निर्बल।
लुप्त हुए गीली माटी पर दौड़ते नन्हें पांव
लंबे चौड़े मॉलों ने छीनी नीम की छांव।
खो गए देखो गांव-शहर से बैठक और चौपाल
अहातों में बेसुध हैं लोग, पीकर मदिरा लाल।
बूंदे सोचें बादल में, कहां मैं बरसूं आज
कटे झाड़ हैं, गले हाड़ हैं, आवे मोहे लाज।
जल बिन जीवन आग है, रोके इसे हरियाली
वृक्ष जीवन का राग है, धरती की है लाली।
अहिल्या नगरी प्राण है, राज्य की पहचान
हरित प्रदेश कर के इसमें मित्रों, फूंक दो इसमें जान।