हिन्दी कविता : शायद 'बापू' फिर से जन्म ले लें...

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-शोभना चौरे 
 

 

 
मेरे घर के आसपास
जंगली घास का घना जंगल बस गया है।
 
मैं इंतजार में हूं,
कोई इस जंगल को छांट दे,
मैं अपने मिलने वालों से हमेशा,
इसी विषय पर बहस करता,
कभी नगर निगम को दोषी ठहराता,
कभी सुझाव पेटी में शिकायत डालता,
और लोगों को अपने जागरूक नागरिक होने का अहसास दिलाता।
 
इस दौरान, जंगल और बढ़ता गया, 
उसके साथ ही जानवरों का डेरा भी जमता गया, 
गंदगी और बढ़ती गई फिर मैं, 
जानवरों को दोषी ठहराता पत्र संपादक के नाम पत्र लिखकर। 
 
पड़ोसियों पर फब्तियां कसता (आज मैं इंतजार में हूं)।
शायद 'बापू' फिर से जन्म ले ले, 
और ये जंगल काटने का काम अपने हाथ में ले ले। 
ताकि मैं उन पर एक किताब लिख सकूं,
किताब की रॉयल्टी से मैं मेरे 'नौनिहालों' का घर' बना दूं।
 
उस घर के आसपास फिर जंगल बस गया, 
किंतु मेरे बच्चों ने कोई एक्शन नहीं लिया,
उन्होंने उस जंगल को, 
तुरंत 'चिड़ियाघर' में तब्दील कर दिया, 
और मैं आज भी शॉल ओढ़कर सुबह की सैर को जाता हूं,
'चिड़ियाघर' को भावनाशून्य निहारकर, 
पुन: किताब लिखने बैठ जाता हूं, 
क्योंकि मैं एक लेखक हूं। क्योंकि मैं एक लेखक हूं।
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