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हिन्दी कविता : झुग्गियां
सीमा पांडे
आसमान से बहुत नीचे, जमीं पर
शहर के बीच में, नाले के मुहाने पर
छोटी-बड़ी, आड़ी-तिरछी, कहीं भी बेतरतीब
खेत-खलिहान बाड़े, चौड़े खुले आंगन का अतीत
सीलन भरी घुटन लिए वर्तमान अवैध, उपेक्षित, भयभीत
वृष्टि कभी करती थी आह्लादित, अमृत का वरदान
अब चिंता की लकीरें उभरतीं, काले पानी में आए उफान
चारों ओर हाहाकार, बहता है शहर
झाग की मानिंद तैरती ज़िंदगी, इधर-उधर
फिर रेल की पटरियों सी, थमी-सी थामे जमीं
साथ देती दौड़ने में, पर स्वयं वहीं की वहीं!
अब पनघट पर नहीं चमकती-खनकती चूड़ियां
नाम से क्या? बस काम वाली बाइयां!
दिन भर की कमाई शाम को खा जाता नशा
रात कसैली, कलपती कलह से, बस चोट खा
नौनिहालों के रुदन से कांपती हैं दीवारें
प्रेम से कोई खटखटाए, राह तकते हैं द्वारे
काला-मटमैला, तरसता, झगड़ता बिसूरता बचपन
तारों पर अटकी-लटकी फटी पतंगों-सा छटपटाता जीवन
दो घरों के बीच बहती निराशा और उनसे उपजी गालियां
हालातों की रस्सी पर टंगे बदरंग पजामे, शर्ट और साड़ियां
कभी खिड़की से छनकर आती फुहारों की आशा
और फिर फर्श पर कीचड़ मचा जाती हताशा
फूटी बाल्टियों में खिलते-सकुचाते फूलों-सा यौवन
गुलाबी सपनों को रौंद जाती नियति निर्मम
धड़कता नहीं, बस कट जाता है समय
विवशता की बांह में कसमसाते, जकड़े हुए
नाक-भौं सिकोड़े चाहे कितना भी शहर
पर अब स्वार्थवश हो गया है निर्भर
दिखता है भले उपेक्षित, अनचाहा, विलगता-सा
पर महीन रेशों सी जुड़ी है शहर की आवश्यकता!
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