येन-केन -प्रकारेण सत्ता को पा जाने की ही चाह क्यों है ?
राजनीति अपने स्थापित आदर्शों से यों गुमराह क्यों है ?
सर्वशक्तिमान मतदाता इतना निरीह और बेबस क्यों हैं ?
चुनाव प्रचार में उछाले गए मुद्दे इतने बेहूदे और बेकस क्यों हैं ?
सियासत में सिद्धान्तहीन लोगों की निर्विघ्न चलती मनमानी क्यों है ?
राजनीति की राह सुयोग्य युवाओं के लिए अनजानी क्यों है ?
जनशक्ति अपनी सामर्थ्य से बिलकुल अनजान, ऊंघती, सोती क्यों है ?
राजनीति कुछ हठधर्मियों की बरबस बन गई बपौती क्यों है ?
गुजरात की चुनावी गहमा गहमी से ये ही सब संकेत मिले हैं।
क्या चिन्तनशील मनों को चिन्तित करने वाले नहीं ये सिलसिले हैं ?
एक परिपक्व प्रजातन्त्र में जाति, धर्म, जनेऊ, मंदिर ही क्या मौजूं चर्चा के विषय हैं ?
यह प्रजातन्त्र ऐसे ही चले क्या यही बस हम सबका निर्णय है ?