हमहु सब जानति लोक की चालन ि, क्यौं इतनी बतरावति हौ । हित जामैं हमारो बनै सो कर ौ, सखियाँ तुम मेरी कहावति हौ। । ' हरिचंद ज ु' जामै न लाभ कछ ु, हमैं बातनि क्यों बहरावति हौ । सजनी मन हाथ हमारे नही ं, तुम कौन कों का समुझावति हौ। ।
उधो जू सूधो गहो वह मार ग, ज्ञान की तेरे जहाँ गुदरी है । कोउ नहीं सिख मानिहै ह्या ँ, इक श्याम की प्रीति प्रतीति खरी है। । ये ब्रज बाला सबै इक स ी, ' हरिचंद ज ु' मण्डली ही बिगरी है । एक जो होय तो ज्ञान सिखाइ ए, कूप ही में इहाँ भाँग परी है। ।