मैंने जो कुछ नहीं कहा था

योगेंद्र दत्त शर्मा

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सफ़र हुआ पूरा दिन-भर का, धूप ढली, फिर शाम हुई,
फिर सूरज पर कीचड़ उछली, फिर बस्ती बदनाम हुई।

जब-जब मैंने मौसम की तकलीफ़ें अपने सर पर लीं,
मौसम बेपरवाह हो गया, मेरी नींद हराम हुई।

मैंने तल्ख़ हकीक़त को ही चुना ज़िंदगी-भर यारो,
मुझे ख़्वाब से बहलाने की हर कोशिश नाकाम हुई।

मुझसे जुड़कर मेरी परछाईं तक भी बेचैन रही,
मुझसे कटकर मेरे दिल की धड़कन भी उपराम हुई।

आँखों में ख़ाली सूनापन और लबों पर ख़ामोशी,
अपनी तो इस तंग गली में यों ही उम्र तमाम हुई।

अहसासों का एक शहर है, जो अकसर वीरान हुआ,
उसी शहर में अरमानों की अस्मत भी नीलाम हुई।

मैंने जो कुछ कहा, अनसुना किया शहर के लोगों ने
मैंने जो कुछ नहीं कहा था, उसकी चर्चा आम हुई।

साभार : समकालीन साहित्य समाचार

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