तहख़ाना...जहां संवरता है लफ़्ज़ों का हुस्न

- दिनेश 'दर्द'

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काग़ज़ पर उकेरी गई लकीरें, सिर्फ़ लकीरें नहीं होतीं...बहुत कुछ छुपा होता है उनमें, सियाही के सिवा भी...लकीरों में छुपे होते हैं ख़याल...ख़यालों में खोजी जा सकती है इंसान के मुस्तक़्बिल (भविष्य) की झलक भी...इतना ही नहीं, पूरी ज़िंदगी की पहचान छुपी होती है, बचपन के काग़ज़ों पर खींची गई इन बेतरतीब लकीरों में...यही बेतरतीब लकीरें रफ़्ता-रफ़्ता अक़्ल के दख़ल और उंगलियों की कसरत से अक्षरों की शक्ल इख़्तियार कर लेती हैं...बढ़ती उम्र के साथ धीरे-धीरे इन अक्षरों की शक्ल-ओ-सूरत भी बनती-संवरती है...मगर जिन लोगों को अक्षर संवारने की ये नेमत ईश्वर की ओर से तोहफ़े में मिलती है, वो किसी न किसी बहाने जल्द ही अपना ये हुनर पहचान भी लेते हैं और जुट जाते हैं इसकी साधना में...जी हां ! यहां लफ्ज़ों की ये सारी सजावट ऐसे ही एक शख़्स के लिए है, जिसने हिन्दी वर्णमाला के सादा-से लफ़्ज़ों को बहुत ही दिलकश हस्नो जमाल बख़्शा है...नाम है अशोक दुबे।

कहिए साब ! कैसे आना हुआ? : इंदौर के किला रोड से नूतन गर्ल्स डिग्री कॉलेज की ओर जाते समय दाएं हाथ पर 31 नंबर मकान के तहख़ाने में मौजूद है उनका रचना संसार। पहचान के लिए इस रचना संसार को नाम दिया गया 'रूपांकन', वहीं तहख़ाने में आपको एक शख्स 59 साला आंखों पर ऐनक चढ़ाए पोस्टर/बैनर की नापजोख करता या लफ़्ज़ों की सजावट करता, मेज़ पर झुका हुआ दिख जाएगा। मुमकिन है आप उन्हें ब-नाम आवाज़ दें, तो वो ऐनक उतारते हुए आपसे पूछ भी बैठें, 'कहिए साब ! कैसे आना हुआ?' वैसे तो आमतौर पर तहख़ानों में अंधेरे ही रहते हैं लेकिन इस तहख़ाने में अंधेरे के नाम पर कहीं कोई कोना नहीं है, बल्कि हर तरफ उजाला ही उजाला है। किताबों का उजाला, विचारों का उजाला, शब्दों का उजाला और हुनर का उजाला ।
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अगले पेज पर, गणित से थी मुहब्बत लेकिन...


गणित से थी मुहब्बत : 12 नवम्‍बर 1955 को इंदौर में पैदा हुए अशोक दुबे के पिता पुलिस सेवा में थे। दादाजी भी अपने ज़माने में तुकोजीराव होल्कर की फौज का हिस्सा रहे। घर में आने वाली पत्रिका 'कल्‍याण' और महाकाव्य 'रामायण' सहित अन्य धार्मिक पत्रिकाओं-पुस्‍तकों से पढ़ने का माहौल बना।

कुछ बड़े हुए, तो बड़े भाई के ज़रिए साहित्यिक पुस्‍तकें पढ़ने की ओर रुझान हुआ। दुबे ने उन दिनों उपलब्‍ध बांग्‍ला साहित्यकारों बिमल मित्र, शरतचंद्र, बंकिमचंद्र आदि की तमाम पुस्‍तकें पढ़ डालीं। साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने का शौक़ तो उन्हें था ही, स्कूली किताबें भी उन्होंने पूरी तन्मयता से पढ़ीं। गणित विषय से मुहब्बत थी। लिहाज़ा, इंदौर के होल्‍कर सांइस कॉलेज से गणित विषय लेकर एमएससी की और गोल्‍ड मेडलिस्ट रहे।

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वामपंथी विचारों का पड़ा गहरा प्रभाव : पढ़ाई के बाद बतौर रोज़गार 3 बरस इंदौर में ही चोइथराम स्‍कूल के बच्चों को गणित पढ़ाया। इसके बाद यही रस्म नरसिंहगढ़ के शासकीय कॉलेज और नागदा के ग्रेसिम विद्यालय में भी निभाई। नागदा में रहने के दौरान ही ट्रेड यूनियन से जुड़ने का भी मौका मिला। और यहीं उनके दिलो दिमाग़ पर वामपंथी विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा। इस बीच इप्टा (भारतीय जन नाट्य संघ) से भी संबद्धता हो गई। फिर जब कभी इप्टा के कार्यक्रम होते या वाम दल के आंदोलन किए जाते, अशोक दुबे उनमें सक्रियता से हिस्सा लेते।

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सुंदर लिखने का जुनून था : ऐसे में ख़ासतौर पर वाम दलों द्वारा कलात्मक तरीक़े से बनाई गई तख़्तियां/पोस्टर उन्हें ख़ूब आकर्षित करते। दुबे के मुताबिक़ इन्हें देखने पर सहसा नज़र ठहर जाती थी और बड़ी राहत मिलती थी। बचपन से ही इंक पेन से लिखते थे और कोशिश रहती थी कि अक्षर जमा-जमाकर लिखें। लिहाज़ा, राइटिंग भी बचपन से ही अच्छी थी।

कॉलेज के नोटिस बोर्ड पर भी मुझसे ही लिखवाया जाता था। उस वक्त तक बाज़ार में स्केच पेन भी नहीं आए थे। स्‍कूल में सप्‍ताह में एक बार आने वाले सुलेखन के पीरियड में बड़े उत्‍साह से भाग लेता था। एक-इक हर्फ़ सुंदर लिखने की कोशिश करता था। यह नहीं जानता था कि इसे कलात्मक तरीक़े से लिखा जाए, तो यही शैली कैलीग्राफी कहलाएगी। बस, सुंदर लिखने का जुनून था।

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क़ैद के दौरान उतारी अंधेरी कविताएं : इस तरह, देखा जाए तो इसे मेरी कैलीग्राफी की शुरुआत मान सकते हैं लेकिन सही अर्थों में मेरी कैलीग्राफी का आरंभ 90 के दशक में हुआ। जब 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद कर्फ्यू के कारण घर में क़ैद रहना पड़ा। कविताओं का शौक तो था ही। इस दौरान दंगा विरोधी कविताओं के पोस्टर/बैनर बनाना शुरू किए।

पोस्टर/बैनर पर आपातकाल के दौरान भवानीप्रसाद मिश्र द्वारा लिखी कविताएं, काव्य संग्रह 'गीतफ़रोश' की रचना 'मैं गीत बेचता हूँ...', अंधेरी कविताएं आदि कैलीग्राफी के रूप में उतारता था। दोस्तों ने मेरे इस प्रयास को बहुत सराहा। इस सराहना ने मेरे इस शौक को और रफ़्तार दे दी।

' सुमन' ने किया प्रदर्शनी का उद्घाटन : इसके बाद उज्जैन स्थित कालिदास अकादमी में पहली बार पोस्टर प्रदर्शनी लगाई, जिसका उद्घाटन प्रख्यात कवि शिवमंगल सिंह 'सुमन' ने किया था। यह प्रदर्शनी सांप्रदायिक दंगों के ख़िलाफ़ थी। प्रदर्शनी को उम्मीद से अधिक सराहना तो मिली ही, साथ ही कैलीग्राफी से होने वाली यह पहली आय भी थी।

इसके अलावा पुणे में लगाई गई 'पर्यावरण' विषय पर केंद्रित प्रदर्शनी भी काफी सराही गई। शहीद भगत सिंह के विचारों को अपने हुनर में ढालने को लेकर भी अशोक दुबे ने ज़बरदस्त काम किया। साथ ही उन्होंने कई मशहूर रचनाकारों के लिए भी हाथ चलाए। इनमें कैफ़ी आज़मी, जावेद अख़्तर, मुनव्वर राना, निदा फाज़ली, अशोक वाजपेयी आदि की रचनाओं पर भी विस्तृत श्रृंखला निकाली।

कई बार शायरों/कवियों की रचनाओं से अलग, विषय केंद्रित बैनर/पोस्टर भी तैयार किए। इसके तहत महिला दिवस, प्रेम, पत्रकारिता, चुनाव, सूफी परंपरा, साइकिल, नर्मदा बचाओ आंदोलन, विस्थापन, सरकारी स्कूलों में शिक्षा आदि मुद्दों के लिए भूख-प्यास की परवाह किए बग़ैर लगातार कई-कई घंटों टेबल पर झुके रहे।

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लिखावट वो, जो दिल-ओ-दिमाग़ में उतर जाए : अशोक दुबे के मुताबिक़ विचार तो अपनेआप में महत्वपूर्ण होते ही हैं, जो सीधा दिल पर दस्तक देते हैं। इसके साथ ही अगर विचारों को सुंदर लिखावट में पेश किया जाए, तो यह पढ़ने वालों की आंखों को भी अच्छा लगता है।

साधारण लिखावट में होने के कारण कई बार लोग अच्छे विचारों को भी नज़रअंदाज़ कर आगे बढ़ जाते हैं। इसके विपरीत अगर इन विचारों को सुंदर व आकर्षक तरीक़े से लिखा जाए, तो इंसान एक बार तो रुककर ज़रूर देखता-पढ़ता है। ऐसे में अच्छी लिखावट क़ीमती विचारों को आंखों के रास्ते दिल-ओ-दिमाग़ तक पहुंचाने में बहुत कारगर साबित होती है।

डूब रही थी, मगर उभर आई : 1981 से प्रिंटिंग व्यवसाय में उतरे अशोक दुबे का मानना है कि 2-3 दशक पहले लगता था कि कैलीग्राफी डूब रही है, लेकिन अब देखकर तसल्ली होती है कि यह फिर उभरती नज़र आ रही है। दरअस्ल इस दौर में जब कम्प्यूटर प्रिंटिंग देख-देख कर निगाहें थक जाती हैं, तब ऐसे में कैलीग्राफी ठीक वैसा ही सुकून देती है, जैसा मीलों फैले धूप से जल चुके सूखे जंगल में अचानक कोई हरा-भरा दरख़्त नज़र आ जाए। सहसा लगता है, जैसे कैलीग्राफी धड़कन और ज़िंदगी पैदा कर देती है।

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वही काम किया, जो मुझे छू गया : एक सवाल के जवाब में दुबे ने कहा कि 'मैंने किसी की व्यक्तिगत फ़रमाइश के लिए कभी कोई पोस्टर नहीं बनाया। केवल उन्हीं पोस्टरों पर काम किया, जो मुझे भीतर तक छू गए। दूसरा सच यह है कि ये हुनर मैंने किसी से सीखा भी नहीं है, ना ही इसे व्यावसायिक रूप से किसी को सिखाया। हां, इतना ज़रूर किया कि कुछ जिज्ञासु लोगों ने मुझसे कैलीग्राफी सिखाने की इल्तिजा की, तो मैंने उन्हें अपने काम करने के वक्त पर बुला लिया। इसके लिए अलग से कभी किसी को कोई ट्यूशन नहीं दी, ना ही कोई सेमीनार लगाए। रूपांकन आने वाले बच्चों ने भी जो थोड़ी बहुत कैलीग्राफी सीखी है, वो मुझे काम करते हुए देखकर ही सीखी है, जिसके लिए किसी को कोई मनाही नहीं है।

बचपन का सपना था वाचनालय : अपने बचपन के एक सपने को पूरा करने की ओर एक छोटा-सा क़दम था 2003 से 'रूपांकन' का अस्तित्व में आना। दरअस्ल, बचपन में दिनभर खेलने के बाद अपने मोहल्ले के वाचनालय में जाया करता था और वहां काफ़ी कुछ सीखने को मिलता। लिहाज़ा, सोचा कि एक ऐसा केन्द्र शुरू किया जाए, जहां आकर लोग पत्र-पत्रिकाएं व किताबें पढ़ सकें। प्रयास सफल हुआ, कुछ ही समय में आसपास के काफ़ी युवा आने लगे, तो मैंने अपनी कैलीग्राफी साधना के अलावा कुछ साथियों के साथ ओरिगामी, बटिक प्रिंटिंग आदि के शिविर लगाना भी शुरू कर दिए। साथ ही संगीत व नाटक प्रस्तुतियां भी होने लगीं।

कैलीग्राफी के अलावा समाजसेवा भी : अशोक दुबे की दुनिया सिर्फ़ कैलीग्राफी तक ही महदूद न होकर समाजसेवा के क्षेत्र तक भी फैली है। खजराना मंदिर परिसर में 'नींव' नामक अनौपचारिक शिक्षण केंद्र की स्थापना की। जहां उन बच्चों को पढ़ाया जाता है, जो मंदिर परिसर या उसके आसपास भीख मांगते है। दुबे के मार्गदर्शन में नींव से जुड़े युवाओं ने तो कई सालों तक गाड़िया लोहारा जनजाति के बच्चों को पढ़ाने का जिम्मा भी लिया। ख़ास बात यह रही कि यहां शिक्षा पाने, क्षेत्र के वो बाल श्रमिक आते हैं, जो शराब, सिगरेट, तंबाकू आदि बुराइयों की चपेट में हैं। केंद्र के युवा इन बच्चों को अक्षर ज्ञान देकर इनकी सोच-समझ विकसित करने का काम करते हैं। इनमें से कुछ बच्चों ने तो अब ख़ुद का रोज़गार भी डाल लिया है।

शोषण मुक्त समाज की आरज़ू : दुबे बताते हैं, 'हमारा सपना है कि शोषण मुक्त समाज हो, न्यायपूर्ण व्यवस्था हो और समानता के अधिकार के साथ हम एक ख़ूबसूरत विश्व में जी सकें। भोजन का अधिकार, महिला आरक्षण और अधिकार, युवा व क्रांतिकारी सोच, नर्मदा आदि मुद्दों पर गाहे ब गाहे हमारा काम और चर्चा चलती रहती है। वर्तमान में हम शहरी परिवहन को लेकर पूरी ताकत से जुटे हैं। इसके अंतर्गत हम 'ग़ैर मोटर चलित वाहन' और 'सार्वजनिक परिवहन' की पैरवी में जगह-जगह कार्यशाला करने के साथ अभियान भी चला रहे हैं। 'रूपांकन' को रफ़्तार देने के लिए इसकी ख़ुराक़ का इंतेज़ाम हम टी-शर्ट्स, पोस्टर, पेपर बेग आदि बेचकर और कुछ साथियों के सहयोग से करते हैं।'

समाज के प्रति बेहिसाब फ़र्ज़ : 2005 से इप्टा की इंदौर इकाई के सचिव पद की ज़िम्मेदारी सम्हाल रहे अशोक दुबे से मिलकर सहज ही समझा जा सकता है कि ज़िंदगी सचमुच एक रंगमंच ही तो है। और इस रंगमंच पर एक शख्स को न जाने कितने ही किरदार निभाने पड़ते हैं। इसी तरह न जाने कितने किरदारों में थोड़े-थोड़े से बंटे अशोक दुबे शायद ये मानते हैं कि समाज के प्रति उनके फ़र्ज़ तो बेहिसाब हैं, लेकिन ज़िंदगी सिर्फ़ एक। ग़ालिबन यही वजह है कि ज़िंदगी का ये मुसाफ़िर थकना-रुकना-बैठना नहीं जानता। वो सिर्फ़ इतना जानता है कि-

इसके बाद ज़िंदगी की कोई गुंजाइश नहीं होगी,
फ़राइज़ जो भी सर हैं, अभी अंजाम देने हैं।

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