समस्याओं की पड़ताल हैं मेरी कहानियाँ

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साहित्यकार निर्भय मल्लिक से सुरेंद्र दीप की बातचीत

* आपके लेखन का आरंभ किस प्रकार हुआ?
मेरे लेखन का आरंभ स्कूल में पढ़ने के समय से ही हो गया था। नागार्जुन और दिनकर की गोष्ठियों में नियमित रूप से जाता था। उस उम्र में एक ही बात मुझे अच्छी तरह से समझ में आ गई थी कि नागार्जुन, दिनकर की अपेक्षा सामान्यजन के अधिक नजदीक हैं। साहित्यकारों और विद्यार्थियों की खूब भीड़ होती थी।

स्वाभाविक रूप से कविता के प्रति मेरा खूब आकर्षण हुआ और मैंने भी कविता से मेरा आज भी गहरा लगाव है। वियतनाम संबंधी मेरी पाँच कविताएँ डॉ. नामवर सिंह ने अपनी पत्रिका में छापी थीं। अब तक मेरे दो कविता संकलन निकले हैं - 'अपने ही खिलाफ़' और 'सहस्राब्दी का सुख-दु:ख।'

* आप श्मशानी पीढ़ी से भी जुड़े रहे हैं, ऐसा आप दावा करते हैं जबकि दूसरों का कहना है कि आपकी प्रतिबद्धता इस काव्य-आंदोलन से कभी थी ही नहीं?
दो फरवरी 1968 को मैंने 'विभक्ति' पत्रिका के माध्यम से श्मशानी पीढ़ी की शुरुआत की थी। विभक्ति पत्रिका के सात अंक निकालकर मैंने इसे बंद कर दिया।

* आपके लेखन पर बंगला साहित्य का प्रभाव स्पष्ट दिखता है, इस पर आप क्या कहना चाहेंगे?
- श्यामसुंदर कॉलेज में पढ़ाने के कारण बंगला साहित्य और कविता से मेरा गहरा लगाव हो गया। दिल्ली के सन्मार्ग प्रकाशन के कहने पर मैंने कवि सुभाष मुखोपाध्याय की पचास श्रेष्ठ कविताओं का हिंदी में अनुवाद किया। इसी समय 'कुरान' में नारी का अवस्थान' के शीर्षक से बंगला में मैंने एक छोटी सी पुस्तक निकाली। इस पुस्तक की बंगाली मुस्लिम समाज में खूब चर्चा हुई। सारी छपी हुई ‍पुस्तकें बिक गईं। इसके अलावा बंगाल के एक सौ प्रसिद्ध कवियों की कविताओं का मैंने अनुवाद किया जो दिल्ली के 'सार्थक प्रकाशन' के पास अभी भी पड़ा हुआ है। 'सन्मार्ग प्रकाशन' के कहने पर और भी कुछ पुस्तकों का मैंने अनुवाद किया।

समरेश बसु की सात लंबी क‍हानियों का अनुवाद 'सप्तरंग' के नाम से छपा भी। उन लोगों के कहने पर मैंने महाश्वेता देवी के उपन्यास 'क्षुधा' का भी अनुवाद किया। डॉ. शिवनारायण राय के अत्यंत क्लिष्ट प्रबंधों का भी अनुवाद करके मैंने 'सन्मार्ग प्रकाशन' को दिया। अनुवाद के साथ ही कहानी, उपन्यास और नाटक का लेखन भी चल रहा था।

* आपकी कौन-कौन सी रचनाएँ अभी तक प्रकाशित हुई हैं?
- मेरे दस उपन्यास 'कुल्हाड़ी', 'कटघरा', 'राधारानी', 'मोहब्बत नगर', 'कालपुरुष', 'घात-प्रतिघात', 'प्रतिवाद', 'कालजयी', 'वैरागी का गणतंत्र', और 'विजया'। दो कहानी संग्रह 'कहूं न पाया सुख' और 'भैरवपुर की पाठशाला और अन्य कहानियाँ'। दो काव्य संग्रह- 'अपने ही खिलाफ़' और 'सहस्राद्धि के सुख दु:ख'। एक नाटक संग्रह - 'गणतंत्र के पाँच कृष्णपक्ष' - प्रकाशित हो चुके हैं। कई संकलन अभी प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं।

* आपके लेखन में कौन से सामाजिक, आर्थिक, मानवीय कारक मुख्य भूमिका अदा करते हैं?
- समकालनी यथार्थ की बदलती तस्वीर मेरी कहानियों में देखी जा सकती है। मनोवेगों से अधिक मानवीय समस्याओं की पड़ताल है मेरी कहानियों में। असंतोष, छटपटाहट और बेचैनी की मुद्रा सर्वत्र देखी जा सकती है। मेरी प्रत्येक कहानी किसी न किसी पाखंड को उजागर करती है। भारतीय समाज का ताना-बाना कुछ इस प्रकार बुना गया है कि उसमें किसान-मजदूर की श्रमशील सभ्यता संस्कृति के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। वर्तमान अर्थतंत्र 'योग्यतम' को ही जीने का अधिकार देता है।

बाकी लोग उनकी सुख-सुविधा बटोरने वाले चाकर, गुलाम हैं। मेरी कहानियाँ उस आततायी सामाजिक व्यवस्था के विभिन्न पहलु्ओं का मार्मिक साक्ष्य पाठकों के सामने उपस्थित करती हैं। सुंदर, शोषण रहित समाज ही मेरी कल्पना का समाज है। देखिए दीपजी, अनुकूल सामाजिक परिस्थितियों के न रहने पर ही मनुष्य का जीवन बदरंग होता है, उसमें असंतोष, निराशा, कुंठा व निराशा जनमती है। मेरी दृष्टि उन छोटी-छोटी घटनाओं की ओर भी जाती है जिनके कारण आदमी का जीवन कुछ से कुछ बन जाता है।

* आपकी रचना के पात्र समाज के किस वर्ग से आते हैं?
मेरे पात्र आमतौर पर समाज के उस वर्ग से आते हैं जिसे हम निम्न और निम्नमध्यम वर्ग कहते हैं। यही वर्ग त्रासदी का सबसे बड़ा शिकार है। यह भारतका बहुलतावादी वर्ग है जो व्यवस्थावादी चक्की में पिस रहा है। कुछ लोग हैं जो जोंक बनकर उसका रक्त चूस रहे हैं।

* क्या आप अपनी रचना प्रक्रिया पर प्रकाश डालना चाहेंगे?
- हर लेखक की रचना प्रक्रिया भिन्न-भिन्न होती है। किसी लेखक की रचनाप्रक्रिया कैसी होती है - यह उसके लेखन के ऊपर निर्भर करता है। अनुभूति‍ जितनी गहरी होगी, अभिव्यक्ति भी उतनी ही आकर्षक और प्रभावशाली होगी। प्रतिभाशाली लेखक की अभिव्यक्ति बहुत गहरी होती है। रचना भी काफी तीव्र गति से आगे बढ़ती है।

प्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी ने 'हजार चौरासी की माँ' कहानी एक ही रात में लिखकर समाप्त की थी। गहरी अभिव्यक्ति और ऊँची शिल्पकला के कारण ही गुलेरीजी की कहानी 'उसने कहा था' इतनी प्रसिद्ध हुई। वर्तमान समय में कवियों और कथाकारों की बाढ़ सी आ गई है। सब लोग अपने को प्रेमचंद और रेणु की परंपरा से जोड़कर देखते हैं। यह बहुत अच्छी बात है। किसी रचना को कालजयी होने के लिए देश-काल की अभिव्यक्ति तो उसमें होना ही चाहिए। 'हजार चौरासी की माँ' और 'उसने कहा था' जैसी रचनाएँ कालजयी हैं। संभवत: मेरी रचनाओं में कहीं कुछ ऐसा नहीं है जिसे कालजयी कहा जाए। देशकाल का प्रभाव तो पड़ता ही है, वह मेरी रचनाओं में जगह-जगह देखा जा सकता है।

' वैरागी का गणतंत्र' में वर्तमान राजनीतिक परिवेश को मैंने उजागर करने की कोशिश की है। आज के गणतंत्र को 'वैरागी' स्वीकार नहीं करता। वह एक नए गणतंत्र के लिए नई स्वाधीनता के लिए संघर्ष कर रहा है। वह वर्तमान स्वाधीनता को नहीं मानता। वह एक नई स्वाधीनता के लिए लड़ाई लड़ रहा है। भारतवर्ष के हजारों-लाखों जागरुक युवक आज एक नई स्वाधीनता के लिए संघर्ष कर रहे हैं। मैंने इस नई चेतना को, नए संघर्षों को अपनी रचनाओं में जगह-जगह दर्शाने की कोशिश की है। 'नंदीग्राम' और 'सिंगूर' की लड़ाई के प्रभाव से अपनी रचना को आज हम अलग नहीं रख सकते। इसका प्रभाव किसी न किसी प्रकार हमारी रचनाओं में देखा जा सकता है।

यह एक स्थान विशेष की लड़ाई नहीं है। यह शासकवर्ग के शोषण के खिलाफ एक प्रतीकी लड़ाई है जो धीरे-धीरे पूरे भारतवर्ष में व्याप्त हो रही है।

* आपके समय में साहित्यिक माहौल कैसा था?
- एक बात आरंभ में बता दूँ तो अच्छा रहेगा। हमारे समय में कलकत्ते का साहित्यिक माहौल बहुत गर्म था। हमेशा कुछ न कुछ साहित्य के नाम पर होता रहता था। कभी-कभी तो वातावरण चरमसीमा पर पहुँच जाया करता था। मारपीट की नौबत आ जाती थी। किंतु ऐसा होता नहीं था। दो-एक रोज के बाद सब फिर दोस्त हो जाते थे। इस तरह की घटनाएँ इतनी हैं कि सब अगर विस्तार से लिखूँ तो एक पोथा बन जाए।

* आपके समय में लघु पत्रिकाओं की क्या दशा थी?
- शोर-शराबा की माध्यम थीं पत्रिकाएँ। किंतु कुछ पत्रिकाएँ ऐसी थीं जिन्हें शोर-शराबे से कोई लेना-देना नहीं था। श्रीनिवास शर्मा '‍मणिमय' निकालते थे, कपिल आर्य भी उस पत्रिका से जुड़े थे। बाद में डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र ने भी इसका संपादन किया। सिद्धेश अलग से पत्रिका निकालते थे। गोपाल प्रसाद और आलोचक अलख नारायण की पत्रिका अलग से निकलती थी।

* क्या इस काव्य आंदोलन पर बंगला साहित्य का प्रभाव था?
उस समय सब जगह कविता का बोलबाला था। पास ही बंगला भाषा में कविता में नाना प्रकार के प्रयोग हो रहे थे। 'भूखी पीढ़ी' चरम सीमा पर थी। इस पीढ़ी के कवि नई शैली में कविता लिख रहे थे। चौराहे पर खड़े होकर कविता सुनाते थे। हिंदी के मृत्युंजय उपाध्याय ने दैनिक कविता निकालना शुरू किया। कविता के सिवा किसी दूसरी विधा के बारे में बात ही नहीं करना चाहते थे।

' भूखी पीढ़ी' के सब कवि खलासी टोला में बैठकर जीवनांद दास का जन्मदिन मना रहे थे। पुराने कवियों का नाम सुनते ही वे चिढ़ जाया करते थे। एक बार शक्ति चटोपाध्याय को रवींद्रनाथ के जन्मदिन पर बोलने के लिए कहा गया। वे उठकर खड़े हुए और साफ शब्दों में कहा - में रवि ठाकुर के बारे में कुछ नहीं जानता और बिना कुछ बोले बैठ गए। उस समय केवल नए कवियों पर बोलना लोग पसंद करते थे।

* आपकी मूल विधा क्या है?
- पहले मेरी मूल विधा कविता थी, अब कहानी और उपन्यास है।

* आपकी कहानियों पर यह आरोप है कि वे बंगला कहानियों की प्रतिलिपि हैं - खासकर 'भैरवपुर की पाठशाला?'
- मेरी कहानियाँ बंगला कहानियों की प्रतिलिपि कतई नहीं हैं। हाँ, बंगला कहानियों का प्रभाव जरूर है मेरी कहानियों पर। विषय की समानता जरूर है।

* आपका बहुत समय लिया। आगे के लिए क्या योजनाएँ हैं?
- बहुत कुछ लिखना है। कुछ पुस्तकें प्रकाशन के लिए तैयार करनी हैं। देखिए कितना हो पाता है।

साभार : कथाबिंब

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