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साहित्य लेखक की अकेली दुनिया नहीं

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कवि-अलोचक अशोक वाजपेयी से सरोजकुमार की बातचीत (इंदौर में आयोजित राष्ट्रीय पुस्तक मेला के उद्घाटन समारोह में मंच पर)

प्रश्नः प्रयोजनमूलक साहित्य को आप किस रूप में स्वीकार करते हैं? इससे रचनाशीलकता पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर : प्रयोजन में लिखा हुआ साहित्य कई बार खराब होता है। वह जटितलताओं से बचता है। इसका अर्थ कदापि यह नहीं है कि हर तरह की जटिलता सार्थक ही होती है। कई बार जटिलताएं निरर्थक भी होती हैं। उसी तरह कई सरलताएं भी व्यर्थ हुआ करती हैं। दरअसल कला के लिए रसिकता अर्थवान होती है और उसे संप्रेषण की समस्या से संघर्ष करना पड़ता है। साहित्य का आस्वाद उस तरह नहीं लिया जा सकता जैसे समोसे का। साहित्य के आस्वाद के लिए आवश्यक यह है कि उसमें पाठक की भी भागीदारी हो। लेखक अपनी रचना में अकेला नहीं होता। उसके साथ पाठक को भी शामिल होना पड़ता है। साहित्य की दुनिया लेखक की अकेली खोजी हुई दुनिया नहीं है वह ऐसी दुनिया है, जिसमें पाठक की भी सहभागिता आवश्यक है। सच कठिनाई से मिलता है। बोरिस पास्तरनाक ने कहा है कि एक रचना से गुजरना कोई खेत पार करना नहीं है। इसके बीच अनेक जटिलताएं हैं।

प्रश्न : यह कहां तक सच है कि आप मानते हैं कि कविता अधिक नवोन्मेषी होती है और कहानी अथवा उपन्यास रूढ़?
उत्तर : नहीं मैं ऐसा नहीं मानता। लेकिन हिन्दी की जो स्थिति नजर आती है उसमें यह किसी हद तक सही है। प्रेमचंद ने कहानी में बहुत प्रयोग किए हैं। प्रेमचंद भारी प्रयोगवादी रहे। लेकिन कहा यह जाता है कि अज्ञेय और जैनेन्द्र ही प्रयोगशील थे।फिक्शन का इतिहास पुराना नहीं है। कुल सौ बरस भी नहीं। जबकि कविता का इतिहास बहुत पुराना है। इसलिए उसमें अपनी हदों को लांघ पाने की ताकत भी है। इसलिए कविता बाकायदा घोषित करके अकविता तक हो गई थी। चंद्रकांत देवताले भी अकविता के नाम पर अच्छी कविता लिखते रहे।

प्रश्न : इधर चर्चा है कि आपने भी गद्यकविता लिखी है। यह क्या है?
उत्तर : कविता में गद्य भी है। वह गद्य जो कविता भी है। बाकायदा गद्य कविता नामकी विधा है। वह दौर भी था जब गद्यगीत लिखे जाते थे। रवींद्रनाथ ने गीतांजलि का विक्टोरियन गद्य में अनुवाद किया था। उसके बाद तो अनेक लोगों ने गद्य गीत लिखे।
40 साल पहले जेम्स ज्वायस और काफ्का ने गद्य गीत लिखे थे, जिसके बारे में कहा गया कि यह हमारे समय की श्रेष्ठ कविता है। विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास 'दीवार में एक खिड़की रहती है' में काफी कविताएं हैं। कई बार लेखक अपने दबाव के विपरीत लिख जाता है।

मैं महसूस करता हूं कि मेरे बोलने में भले विनोद हो पर कविता गुरु-गंभीर बनी रहती है। मैंने विट को भी गद्य में स्थान देने में लगा हूं। अपने बारे मैं इधर बात करने लगा हूं। मैंने अविन्यो नाम की कृति लिखी है, जिसमें 25 गद्यखण्ड हैं। यह कृति 19 दिन में लिखी गई। अविन्यो दक्षिणफ्रांस में है जहां कई पादरियों को मौत के घाट उतारा गया था।

मैं अपने लिखे को हड़बड़ी का काव्यशास्त्र कहता हूं। मुझे तमाम बेवकूफी के काम भी करने पड़े हैं जिसके कारण मैंने ऐसा अनुशासन बनाया है कि हड़बड़ी में भी लिखना हो जाए। मेरा लेखन पहले ड्राफ्ट का लेखन है। मैं अपनी रचना सीधे टाइप करता हूं। मेरे लिखने वाला टाइपराइटर यहीं इंदौर के कूड़ेखाते से अरसा पहले लिया था। वही टाइपराइटर ऐसा तोता है जिसमें मेरी जान बसती है। मेरी हस्तलिपि इतनी खराब है जितनी कि मैं कई बार अपने लिखे को समझ नहीं पाता हूं। दूसरे टाइपराइटर में अपना लिखा लिखते ही दूर हो जाता है जो मुझे अच्छा लगता है। मैं यह साढ़े सात किलो का टाइपराइटर लिए इस उस देश घूमता फिरता हूं।

प्रश्न : साहित्य के मौखिक इतिहास पर आप कोई योजना बना रहे हैं?
उत्तर : हां। यह एक महत्वपूर्ण काम हो सकता है। साहित्य के इतिहास में इस तरह की बातें भी होनी चाहिए कि किसी रचनाकार के रचनाकाल में उसके बारे में क्या प्रकाशित हुआ था। पंत और निराला के मतभेदों पर तो पूरी पुस्तक ही है। लेखक के निजी प्रसंगों का भी महत्व है। लेखक कोई संत तो होता नहीं। हमें इस बात को भी जानना चाहिए कि कौन किसके बारे में क्या कहता है। इस तरह के पिछले 50 सालों के इतिहास की तैयारी है।

प्रश्न : आकेजन्ड पोयट्री के बारे में आप क्या सोचते हैं? क्या आप इससे सहमत हैं कि किसी रचनाकार के प्रसंगों की जानकारी भी लोगों को रखनी चाहिए जिस पर कविता लिखी गई हो?
उत्तर : अवसर पर लिखी गई कविता अवसर से बंधी होते हुए भी अवसर से मुक्त होती है। हां यदि प्रसंग का पता हो तो पाठक को कुछ उस कविता को समझने में मदद अवश्य मिल जाती है, पर ऐसी कविताओं की विशेषता यही होती है अवसर से उत्प्रेरित पर अवसर से मुक्त। कविता खुद अवसर हो जाती है।

अब लोग पूछते हैं कि क्या इसका तात्पर्य यह हुआ कि किसी प्रेमकविता को समझने के लिए यह आवश्यक है कि कवि की प्रेमिका ढूंढ निकालो। लेकिन प्रेमचंद के उपन्यास में नारी चेतना पर शोध करने की तुलना में यह लेखक को समझने में अधिक लाभप्रद साबित होगा। लेखक के परिवार, पड़ोस में कौन थे, यह जानना लेखक को समझने में अधिक मदद करेंगे। यह काम प्रेमचंद और प्रसाद को समझने में हमारी मदद कर सकते हैं। ऐसा भी दौर रहा है जब नदी के द्वीप के मालती और भुवन के बारे में चर्चाएं होती थीं कि ये कौन हैं। एककथाकार तो ऐसे हुए जिन्होंने अपने लेखन से विद्वेष का रूपक गढ़ा।

प्रश्न : आलोचका का कहना है आपकी कविता में ईश्वर अधिक आता है। आप क्या आस्तिक हैं?
उत्तर : यह हमारी आलोचना की अपरिपक्वता है। कई आलोचक ऐसे हैं जो कविता के विषय को ही कविता का अर्थ समझ बैठते हैं। यह अलोचना का आसान किन्तु, मूर्ख प्रलोभन है। कई बार तो लेखक अपने ही घोषित विषय के विपरीत लिखता है। मिल्टन की 'पैराडाइज लास्ट' इसका उदाहरण है जिसमें उन्होंने ईश्वर का औचित्य घोषित करने के बदले शैतान के औचित्य पर लिखा है। आलोचना वह है जो कथ्य पर विचार करे। रेणु के 'मैला आंचल' पर यह नहीं लिखा जाना चाहिए कि इस अंचल की कहानी है। इसमें तो वह सुनना होगा जो जनपद बोलता है। अज्ञेय की कविता 'द्वितीया के प्रति' में 'उस अत्यंतगता' के प्रति की चर्चा है। हमें यह जानना होगा कि वे किस 'अत्यंतगता' की ओर इशारा कर रहे हैं। यह शब्द भवभूति ने 'उत्तररामायण' में पहले लिखा था, जो एक हजार वर्ष तक साहित्य से गायब रहा। आलोचक को यह देखना होगा कि यह शब्द किस शब्द को पुकार रहा है। साहित्य में शब्द का गठन ऐसा होता है कि शब्द शब्द को पुकारते हैं। कृति के चौकन्ने आलोचक का काम पाठक को रचना की ओर वापस भेजना है कि मैंने तो कृति को यहां से ऐसे देखा है अब तुम अपनी नजर से देखो। आलोचना पढ़कर पाठक को ऐसा तृप्त कर देना कि वह रचना की ओर न जाए खतरनाक है। आलोचना शब्द लुच धातु से बना है जिसका अर्थ देखना है।

प्रश्न : इस तरह के आलोचक कौन हैं?
उत्तर : रामचंद्र शुक्ल। उन्होंने जिन कविताओं की चर्चा की है वे इतिहास की गोल्डन ट्रेजरी हैं। अनेक रचनाएं मिल जाएंगी जिनके रचना के बारे में सोचकर विस्मय होता है जैसे निर्मल वर्मा का मैला आंचल के बारे में लिखना जो रचनाकार की मूल संवेदना से उलट है वह उस पर ज्यादा ध्यान देता है। राम की शक्ति पूजा पर वागीश शुक्ल का लेखन, मलयज का रामचंद्र शुक्ल पर तथा अज्ञेय पर रमेशचंद्र शाह के लेखन अच्छी आलोचना के उदाहरण हैं।

प्रश्नः क्या आप पुनर्जन्म में विश्वास नहीं यह आपकी कविताओं से आभास मिलता है?
उत्तर : मैं कविता अपने अविश्वास से भी लिखता हूं। आपके पिछले प्रश्न का भी जवाब अधूरा रह गया था। बता दूं कि ईश्वर पर विश्वास करने का मुझे सुयोग नहीं मिला। न पुनर्जन्म में। लेकिन मेरे लिए ईश्वर अजस्र उपजीव्य रहा है। ईश्वर का संसार तथा उसकी वृहत्तर सत्ता तथा लोगों की आस्था आकर्षित करती है लेकिन मैं उस पर भरोसा नहीं करता। ये हमारी परंपरा के केंद्रीय रूपक हैं जिनसे मैं खिलवाड़ करता रहा हूं। वह ससुरा कवि कवि नहीं जो खेलता नहीं। दूसरों की कविता से भी खिलवाड़ हो पर कृतज्ञ भाव से। जिस कवि में उससे पहले की कविता नहीं बोलती उसकी रचना में खोट है। हलांकि हर कवि यही चाहता है कि वह आदि कवि हो। लेकिन कवि बिना परंपरा के नहीं हो रह सकता। हमें विदेशों में हमारी परंपरा में ही देखा जाता है। लेकिन मुझे लगता है कि निराला, मुक्तिबोध न हुए होते तो हम भी न होते।

प्रश्न : मुक्तिबोध के बारे में आपकी क्या राय है?
उत्तर : मुक्तिबोध के बारे में मैं प्रचलित ढर्रे से अलग सोचने लगा हूं। मुझे यह लगता है कि दरअसल वे कविता में पूरा उपन्यास लिख रहे थे। मुक्तिबोध के पसंदीदा लेखक टॉलस्टाय थे। और मुक्ति बोध की कविता का अटपटापन और विफलता का कारण कविता में उपन्यास लिखने की कोशिश है। मुक्तिबोध की चर्चित कविता 'अंधेरे में' में टालस्टाय और गांधी दिखाई दे जाते हैं। मुक्तिबोध कामायनी या राम की शक्तिपूजा नहीं लिख रहे थे। उन्होंने एक नए किस्म की चुनौती स्वीकार की थी।

प्रश्न : नामवर के निमित्त समारोह में आपने कुछ पूर्व प्रधानमंत्रियों और मंत्रियों के बुलाए जाने का विरोध करते हुए उसमें नहीं गए? जबकि आप कभी स्वयं भारत भवन में थे तथा आपके कार्यक्रमों में मंत्रियों की उपस्थिति से इंकार नहीं किया जा सकता। इन्हीं मसलों पर आपका अज्ञेय जी से मतभेद भी हुआ था।
उत्तर : भारत भवन में सांस्कृतिक कार्यों में सत्ता का सीधा हस्तक्षेप नहीं था। मैंने अज्ञेय जी को समझाया था कि सरकार केवल पैसा दे रही है। अज्ञेय उसके कार्यक्रमों का बायकाट यह कहकर कर रहे थे कि उसमें सरकारी हस्तक्षेप है। जबकि अज्ञेय स्वयं उस पत्रिका आजकल में लिख रहे थे जो सरकार के प्रकाशन विभाग से सीधे निकलती है। वे उसे सरकारी हस्तक्षेप इसलिए नहीं मान रहे थे क्योंकि देवेन्द्र सत्यार्थी और चंद्रगुप्त विद्यालंकार जैसे लोग उसका संपादन कर रहे थे। मैंने समझाया था कि मध्यप्रदेश कला परिषद साहित्य अकादमी से रजिस्टर्ड सोसाइटी है। सरकार अगर हस्तक्षेप करती भी तो मेरे माध्यम से करती। लेकिन सरकारी हस्तक्षेप नहीं हुआ था और परिषद के 1000 कार्यक्रमों में मुश्किल से 50 में मुख्यमंत्री आए होंगे। वहां यह भी होने लगा था कि तानसेन समारोह आदि का उद्घाटन बड़े कलाकारों ने करना शुरू किया था।

यह गलत है कि मैं नामवर के निमित्त कार्यक्रम में गया ही नहीं था उसके एक सत्र में तो मैं गया था। मैं उसमें नहीं गया था जिसमें वे मंत्री बुलाए गए थे जिन्होंने मंच पर यह स्वीकार किया कि उन्होंने नामवर सिंह को नहीं पढ़ा है।

आखिर ऐसे नेताओं को बुलाने की आवश्यकता क्या थी? यह कहना गलत होगा कि ये हिन्दी समाज के प्रतिनिधि के तौर पर बुलाए गए थे। यदि प्रतिनिधित्व की ही तलाश थी तो चित्रकारों, संगीतकारों, रंगकर्मियों, इतिहासकारों, वैज्ञानिकों को बुलाया जाना चाहिए था जो ज्यादा सार्थक होता। मैं मानता हूं कि लेखक राजनेताओं की उपेक्षा का जवाब असहयोग से तो दे ही सकता है। तुम हमें मत पूछो हम तुम्हें नहीं पूछेंगे। केवल मार्क्सवादी दलों को छोड़कर बाकी किसी दल ने लेखकों से कोई वास्ता नहीं रखा है।

मैं यह नहीं मानता कि लेखक का राजनीति से कोई वास्ता नहीं होता। बिल्कुल होता है। लेखक बड़ी राजनीति करता है। वह दो-चार साल बाद की राजनीति नहीं करता वह विपुल की राजनीति करता है। राजनीति मूल्य शून्य हो चुकी है, जबकि साहित्य मूल्यों की संग्राम भूमि है। कांग्रेज भाजपा जैसी दिखाई देती है और भाजपा कांग्रेस जैसी। फर्क मिट गया है। राजेंद्र माथुर ने ठीक कहा था-कांग्रेस किसी पार्टी का नहीं, सत्ता शैली का नाम है।

मूल्यों की संग्राम भूमि में मूल्यशून्यों को प्रभामंडित क्यों किया जाए। 50 सालों से वे हमारी उपेक्षा करते आ रहे हैं। उन्हें केवल रामाधारी सिंह दिनकर की काव्यपंक्तियां याद हैं-सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

हिन्दी समाज के प्रतिनिधित्व के लिए नेताओं को बुलाने के बदले चित्रकारों, संगीतकारों, इतिहासकारों, वैज्ञानिकों को बुलाया जाना तर्क संगत होता। अपना विरोध करने वालों को बता दूं कि मैं अकेला पड़ जाने से नहीं डरता। मुझे अपने पीछे कीर्तन मंडली और भजन मंडली नहीं चाहिए। मुझे इसका नैतिक हक है कि मैं इस तरह के सवाल उठाऊं। मैंने अरसे तक ऐसे सवालों के जवाब दिए हैं। सीधा सा जवाब यह होगा कि अब जवाब देने की आपकी बारी है। दूसरे यह कि इतना कम भी नहीं किया हैकि कोई फूंक कर उड़ा दे।

प्रश्न : पिछले दिनों मेनका गांधी के बेटे वरूण गांधी की पुस्तक आई तो सारे लेखक उसकी चापलूसी में लग गए थे। इसके बारे में आप क्या सोचते हैं?
उत्तर : दिल्ली में अब भी साहित्यकारों में वैसी गिरावट नहीं मिलेगी जैसी अन्य कलाओं में है। अन्य कलाओं से जुड़े लोग तो नेताओं से संपर्क साधने में जुटे रहते हैं। आज भी दिल्ली के ज्यादातर पुस्तकों का लोकार्पण नेताओं से नहीं कराया जाता।

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