आँख का पानी

लघुकथा

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मुन्नू ला ल
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भारी अफरातफरी। भागमभाग। जिसे जिधर सूझता है, वह उधर ही भाग रहा है। जगत दादा का अंत समय निकट है। उनके मुँह में एक कुल्ला पानी डालना है, पर पानी है कि...।

हर कहीं टका-सा जवाब मिलता है कि जब कल से टैंकर ही नहीं आया, तो पानी कहाँ से दें।

पहले मरने वाले के मुँह में गंगाजल डालने की परंपरा थी। अब गंगा लुप्त हो गई, तो वह परंपरा भी नहीं रही। अब तो कहीं के भी पानी को गंगाजल मानकर काम चला लिया जाता है। लोग, भले मजबूरी में ही, 'मन चंगा, तो कठौती में गंगा' रैदास के कथन पर अमल करने लगे हैं।

देश पानी की भारी किल्लत से जूझ रहा है। विपक्ष ने जल-संकट को और गहराने नहीं दिया जाएगा, भले विदेशों से इसका आयात ही क्यों न करना पड़े।

पर जगत दादा का हलक तो सूख रहा है न! एक कुल्ला गले में पड़ जाता, तो शायद दो-चार घड़ी के और मेहमान रह जाते। उन इंजीनियर-डॉक्टर नाती-पोतों से भी मिल लेते, जो दादा की गंभीर हालत सुनने के बाद अपने-अपने शहरों से तुरंत रवाना हो चुके थे।

गाँव के मुखिया जयपाल जी बेहद रंजोगम में हैं -- 'बताइए, ऐसा जमाना आ गया है कि मरने वाले के हलक में डालने को एक बूँद पानी तक नहीं। आखिर क्या होगा इस देश का!'

शिरोमणि जी बड़बड़ाए -- 'जयपाल जी, पानी की इस किल्लत के लिए हम खुद जिम्मेदार हैं। हमने इसे बिना सोचे-समझे बहुत बर्बाद किया है। किया हमने, तो भरेगा कौन?'
अचानक वे चौंक पड़े। जगत दादा की श्रीमती जी उनके मुँह में अपने आँख का पानी टपका रही थीं।
साभार : शुभ तारिका

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