'ईमान'

सीमा पांडे
उस दिन बैंक में बहुत भीड़ थी। अचानक शोर सा उठ ा, शायद किसी व्यक्ति की कोई चीज गुम हो गई थी। पल में ही भीड़ ने उसे घेर लिया।

वहां उपस्थित पुलिसकर्मी को अपनी जिम्मेदारी का एहसास हु आ, भीड़ को चीरकर वह उस व्यक्ति के पास पहुंचा और रौबीले अंदाज में पूछा- 'क्यों क्या हु आ?'

' सा ब, मेरी थैली....प्लास्टिक की थैली....यहीं कहीं...किसी ने.... गुम हो गई..साब.. ।' कृशकाय व्यक्ति घबराहट और लाचारी से हकलाया ।

' अरे! थैली में ऐसा क्या थ ा?' प्रश्न पूछकर पुलिस वाला अपने आजू-बाजू शरारती अंदाज में देखकर मुस्कुराया ।

' सा ब, हजार रुपया था ।' आदमी गिड़गिड़ाया ।

वर्दीधारी ने उसके हुलिए को ऊपर से नीचे तक ताका- 'हजार रुपया तेरा थ ा?'

इस अविश्वास से भरे प्रश्न ने उसके स्वाभिमान को ललकार ा, अबकी बार उसने सिर उठाकर कठोरता से कहा- 'सब पैसा मेरा ही थ ा, एक-एक पाई मेहनत से कमाई हुई और उतनी ही मेहनत से जोड़ी हुई ।' उसकी तीखी दृष्टि पुलिस वाले के चेहरे पर जम गई थी ।

इस पैनी दृष्टि में क्या बात थी कि पुलिस वाले का स्वर पिघल गय ा, उसने लरजकर पूछा- 'पैसा मिलेगा तो तू पहचान लेग ा?'

' पैसों की कोई पहचान थोड़ी होती है। हाँ, यह जिसके पास पहुँच जा ए, उसको सब जरूर पहचानने लगते हैं। पैसों का कोई ईमान भी नहीं होत ा, जिसके हाथ लग जाएं उसी के हो जाते हैं और उसका ईमान खराब कर देते हैं ।' खोए हुए पैसे ने उस आदमी को दार्शनिक बना दिया था।

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