एक भला मानुस

लघुकथा

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ज्योति प्रकाश माथुर
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पिछले दिनों मैं बस द्वारा मनावर से राजगढ़ (धार) आ रहा था। संध्या के करीब 7-8 बजे का वक्त था। कुछ गर्मी से और भोजन करके आने के कारण बस में बैठते ही मुझे पानी की प्यास लगने लगी, जो निरंतर बढ़ती जा रही थी। पानी की बोतल भी उस दिन साथ नहीं थी। कहीं भी बस इतनी देर नहीं रुक रही थी कि भीड़ में जाकर नीचे से पानी पीकर वापस आया जा सके।

मेरे सफर में लगने वाला दो घंटे का संभावित समय मुझे तीव्र प्यास के कारण काफी भारी लगने लगा था। इतने में ही एक छोटे से गाँव से एक बुजुर्ग सज्जन अपनी दूध रखने वाली टंकी लेकर बस में चढ़े और उन्होंने टंकी का ढक्कन खोलकर अपने साथ लाया छोटा लोटा उसमें से पानी भरकर सबसे आगे सीट पर होने से मेरे आगे बढ़ा दिया।

मैं एक क्षण अवाक-सा उन देव रूप में आए सज्जन को और उनकी अवस्था को निहारने लगा। उन्होंने मुस्कराकर कहा- ' ताजा पानी है, अभी भरकर लाया हूँ, ले लीजिए।' मैंने यंत्रवत उनसे लोटा लेकर एक साँस में पानी पी लिया तब कहीं मेरी जान में जान आई।

  मैं एक क्षण अवाक-सा उन देव रूप में आए सज्जन को और उनकी अवस्था को निहारने लगा। उन्होंने मुस्कराकर कहा- ' ताजा पानी है, अभी भरकर लाया हूँ, ले लीजिए।' मैंने यंत्रवत उनसे लोटा लेकर एक साँस में पानी पी लिया तब कहीं मेरी जान में जान आई।       
इसके पश्चात उन सज्जन ने अमूमन प्रत्येक जरूरतमंद को इतनी भीड़ में भी उसकी सीट तक जाकर जल पिलाया। जिज्ञासावश पता करने पर मालूम हुआ कि उन सज्जन का यह रोज का ही कार्य है। वे गाँव से दूध लेकर आते हैं, निर्धारित दुकान पर दूध खाली कर हैंडपंप पर उस टंकी को अच्छी तरह माँज-धोकर साफ पानी भर लेते हैं और वापसी में बस के प्यासे यात्रियों को पानी पिलाते जाते हैं।

टंकी की सफाई भी इतनी कुशलता से की जाती है कि पानी पीने में दूध का कहीं आभास नहीं हो पाता है। बस का स्टॉफ व अन्य परिचित दैनिक यात्री उनके जल का ही इंतजार करते हैं। उनकी उम्र, सादगी और इस निष्काम सेवा को देखकर मन उनके प्रति अगाध श्रद्धा से भर गया।

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