कुट्टी

Webdunia
- नीता श्रीवास्त व

ND
उनकी धड़कनें तेज हो गईं। उफ्‌‌ ये आजकल के बच्च े, ना जाने क्या समझते हैं अपने आपको। सारी अक्ल ईश्वर ने इन्हीं को दी है। माँ-बाप की बात की कोई कद्र ही नहीं। अपने में ही मस्त-मगन हैं। सही है तो सिर्फ एक यही। बाकी सारी दुनिया गलत।

आज कितना अच्छा मौका थ ा, मगर हमेशा मनमानी करती है। समझती क्यों नही ं, करियर का प्रश्न है। बड़ों का अनुभ व, उनकी सलाह काम ही आएगी किंतु यह वही करेग ी, जो इसका मन कहेगा। इसकी शिकायत भी किससे करें! पतिदेव से...? वे इसे समझने के बजाय यह कहकर बातही खत्म कर देंगे कि- 'आखिर तुम्हारी बिटिया ह ै, वह भी वह करेगी... जो उसका मन कहेगा ।'

हूक-सी उठी मन में। उनकी परवरिश में कसर कहाँ रह ग ई? उन्होंने तो सैर-सपाट ा, तीर्थ-उत्स व, शादी-ब्या ह, मेल-मुलाकात सब कुछ इसी पर न्योछावर कर दिया है। उनकी बिटिया कभी स्वयं को उपेक्षित महसूस न कर े, इस प्रयास में उन्होंने स्वयं तक की उपेक्षा की। यूनिट टेस् ट, एग्जाम् स, मार्क्स-मेरिट-रैंक की जोड़-बाकी में ऐसे उलझती ं, कि कई-कई दिन लंबे घने बालों को सुलझाने का वक्त नहीं निकाल पातीं।
  उनकी धड़कनें तेज हो गईं। उफ्‌‌ ये आजकल के बच्चे, ना जाने क्या समझते हैं अपने आपको। सारी अक्ल ईश्वर ने इन्हीं को दी है। माँ-बाप की बात की कोई कद्र ही नहीं। अपने में ही मस्त-मगन हैं। सही है तो सिर्फ एक यही। बाकी सारी दुनिया गलत।      


फूलों का गजरा कई बार बिना चोटी में गूँथे ही सूख गया है। ब स, एक ही धुन। बिटिया का उज्ज्वल भविष्य। पूरे आत्मविश्वास से लबरेज। इसीलिए जब तक उसकी परीक्षाएँ निपट नहीं जाती ं, उनकी धड़कनें सामान्य नहीं हो पाती थीं। और जिस शाम इसी अनुकृष्णा का रिजल्ट आय ा, मेरिट और रैंक..., खुशी का आर-पार नहीं। मनचाहे इंस्टीट्यूट में एडमिशन की श्योरिटी।

उस रात वे चौंक गई थी ं, अपनी ही जम्हाई से कोई सुने तो यकीन ही न करे। वाकई पूरे सालभर से उन्हें जम्हाई आई ही नहीं थी। अनुकृष्णा चैतन्य रह े, सजग रहे इसलिए संभवतः वे सोई भी नहीं।

खैर... यह कोई बड़ी बात नहीं है। अपने बच्चों के लिए सभी माँ-बाप करते हैं। कदाचित्‌ अपनी ही खुशी के लिए।

सभी माँ-बाप...? झटका-सा लगा उनके विचारों को। नहीं सभी माँ-बाप नही ं, या कम से कम उनके माता-पिता तो हरगिज नहीं। उनके माता-पिता तो जाने किस मिट्टी के बने थ े, जिनके लिए अपने बच्चों से ज्यादा महत्वपूर्ण थे अपने भाई-बहनों के बच्चे। पास-पड़ोसियों के बच्चे। हर खुशी में दूसरे बच्चों की हिस्सेदार ी, हर चीज में से दूसरे बच्चों के लिए बँटवारा।

वे छोटी थीं किंतु ये बातें उनके लिए छोटी नहीं थीं। वे देखती थी ं, बड़े भाई-बहनों का पैर पटक-पटक रोना। खासतौर पर दिवाली के अवसर पर।

जब पापा दो-तीन झोले भरकर पटाखे खरीदकर लाते थ े, भैयाओं की खुशी देखते ही बनती थी। हर दिवाली पर भैयाओं के लिए लेटेस्ट तमंचे-बंदूकें भी आती थीं। भैया उन्हें दिखाक र, डरा-डराकर खूब हँसते थे।

मगर उनकी हँस ी, उधम-मस्ती अगले ही पल रोने-ठिनकने में बदल जाती थ ी, ज्यों ही पापा पटाखों के हिस्से करना शुरू करते थे। दो बड़ी-बड़ी परातों में अना र, चकर ी, रॉके ट, सूतली ब म, लक्ष्मी ब म, रंगीन माचिस यहाँ तक कि साँप ओर टिकली के पूड़ों तक का बँटवारा। आधे पटाखे भैयाओं को और आधे आंटी के बच्चों को देने पाप ा, भैयाओं को रोता छोड़ निकल जाते थे।

भैयाओं के गालों पर बहते आँसू और माँ की चुप्पी में छुपी पीड़ा उन्हें तकलीफ देती थी। कुछ देर बाद दोनों भैया जितने पटाखे मिलते थ े, उन्हीं से संतुष्ट हो धूम मचाने लगते थे। पर वे मुस्कुरा नहीं पाती थीं। शायद यही वजह हो कि आज भी उन्हें दिवाली का त्योहार उल्लास-उत्साह के बजाय उदासी ही देता है।

उनका मन तार-तार हो जाता है उन यादों से। सच तो यह ह ै, कि उनकी मुस्कुराहट बहुत बचपन में ही छिन गई थी। जब उन्होंने माँ-पापा को जाने कितने संघर्ष-संधि-समझौते करते देखा था। नाते-रिश्तेदारों के लिए तन-मन-धन से न्योछाव र, भले ही जेब में पूँजी हो न हो। पापा का नाम ही काफी था। दुकानदारों को भी पता थ ा, पैसा तो डूबने वाला है नहीं। अतः सूखे मेवों से लेकर मुरमुरे तक सेर-सेर भर से कम न भेजते थे। खाने-पीने के घर में भरपूर भंडार। उसी अनुपात में घर में डेरा डाले खाने वालों की भी भीड़ भरपूर।

उनका घ र, घर से ज्यादा धर्मशाला थी। उन्हें याद नहीं कि घर में सिर्फ माँ-पापा और वे भाई-बहन रहे हों। बुआ के बच्च े, मौसी के बच्चे तो एक-दो सदा ही बने रहते। इसके अलावा संयोग से घर भी बहुत बड़ा थ ा, कि रिश्तेदारों के घर आए मेहमानों को भी सुविधा होनेकी वजह स े, रात को सोने उन्हीं के घर भेज दिया जाता था।

सोना तो एक बहाना होता था। पूरे सोलह श्रृंगार उन्हीं के घर होते थे। पूरी आवभगत माँ के जिम्मे। बच्चों के हिस्से में माँ आ ही नहीं पाती थीं। रसोई घर... रिश्तेदारों... रस्मो-रिवाजों में हर क्षण व्यस्त। सब कुछ लुटाते रहने के बावजूद मिला क्य ा? सबको आराम देने के चक्कर मे ं, खुद थककर ऐसी सोई ं, कि सोती रह गईं।

किसी का कुछ नहीं गय ा, पर उनकी माँ चली गईं। माँ दुनिया से भले चली गई ं, पर उनके मन में आज भी जिंदा हैं। और जिंदा है 'रिश्तेदा र' शब्द से नफरत। इस नफरत को पुख्ता किया था पापा की परोपकारी प्रवृत्ति ने। ऊँचे ओहदे पर होने से पापा की पहुँच भी ऊपर तक थी। उसी का फायदा लेने उस रोज विलास आ गया था- 'अंक ल, बस इस एक पेपर की वजह से मेरा पूरा रिजल्ट बिगड़ जाएगा। सक्सेना सर के पास गई है कॉपी। प्लीज उनसे बात कीजिए ।'

फाइनल ईयर उनका भी था। पापा अगर विलास की सिफारिश कर सकते हैं तो वे सगी बिटिया हैं...। यही सोच उन्होंने भी धीरे से अपनी अर्जी रख दी थी- 'पाप ा, मैं भी दे दूँ मेरा रोल नंबर...?'

- ' हिश्ट्... बेटा तुझे क्या जरूरत ह ै? तू तो वैसे ही मेरिट होल्डर है। न भी होत ी, तो भी कहीं अपने बच्चे की सिफारिश करना शोभा देता ह ै?'

अवाक्‌ रह गई थीं वे। पापा की परोपकारिता का सिलसिला थमा कहाँ थ ा?

हद हो गई उस दि न, जब पापा ज्योतिषी के पास दीदी के विवाह हेतु किसी युवक की कुंडली मिलवाने गए थे और वहीं आ गए थे उनके एक मित्र। वे भी सजातीय और सयानी बिटिया के विवाह की चिंता से ग्रस्त। पापा उन्हें परेशान कैसे देखते।

तुरंत कुंडली उन्हें थमा दी- 'नंदिनी की जन्मपत्री से मिलवाने के बजाए अब आपकी मीना की पत्रिका से मिलवाइए इसे। नंदिनी की अभी उम्र ही क्या ह ै?'

इस प्रसंग का रहस्योद्घाटन तब हु आ, जब मीना की बारात द्वार पर आ चुकी थी। मीना के ससुर ने समधी भेंट में गले मिलते हुए जोरदार शब्दों में पापा को उलाहना देते हुए कहा था- 'अरे साह ब, आना तो चाहते थे हम आपके द्वा र, पर आपने भेज दिया अपने मित्र के द्वार पर ।'

-' यह द्वार भी अपना ही ह ै' पापा का स्वर गदगद था। किंतु वरमाला थामे दूल्हा-दुल्हन की आँखों मे ं, क्षणभर को ही सह ी, हाहाकार मचा जरूर था।

बड़े-बुजुर्गों की हर बात से उन्हें चिढ़ होने लगी। दिन-ब-दिन वे मूक और कृपण होती गईं। अपने में ही व्यस् त, कि सबसे दूर हो गईं। पिता की परोपकारी प्रवृत्ति एवं माँ की सेवाभावी विनम्रता से एकदम उलट। आत्मकेंद्रित एवं स्पष्टवादी।

मन पर लगी ठेस कभी भी जख्म बनकर पकत ी, फूटत ी, सूखती नहीं है। बल्कि एक गाँठ बन जाती है। बचपन की उपेक्षा उनके अंदर गाँठ बनकर उभरी और उसी ग्रंथि ने उन्हें अपनी बिटिया के प्रति बेहद संवेदनशील बना डाला।

नामकरण संस्कार के समय सब बोले- 'काली ह ै, काजल नाम रख दो ।' उन्होंने सिरे से सुझाए गए सारे नामों को खारिज कर संयत स्वर में कहा था- 'पंडितज ी, मेरी बिटिया में जबर्दस्त आकर्षण है। इसे नाम दीजिए- अनुकृष्णा ।'

उसके बाद कभी किसी रिश्तेदार की हिम्मत नहीं हुई अनुकृष्णा को काला कहने की। बस एक ही ध्ये य, वे पापा को दिखा देना चाहती थीं कि अपने बच्चों की फिक्र कैसे रखी जाती है। उनकी सुविधाओं में गैरों की हिस्सेदारी जायज नहीं है। बच्चों के भविष्य की संकल्पना माँ-बाप की जिम्मेदारी है ।

उन्हें ऐसा लगता ह ै, पापा को उनकी मनोभावना का संज्ञान हो चुका है। तभी तो गले लगाकर यही कहते हैं- 'मेरी पगली बिटिय ा, हमेशा जीतती रह ।' सब पूछते है ं, ' ऐसा क्यों कहते ह ो?' वे कभी नहीं पूछतीं। उन्हें तो जीतकर दिखाना है।

किंतु आज... आज लग रहा है हार गईं वे। पापा से भी और अपनी बिटिया से भी। हूक-सी उठी मन में। उनकी परवरिश में कसर कहाँ रह ग ई? अनुकृष्णा को लेकर उनका मन बड़ा जिद्दी। उनके मुताबिक रेस में हिस्सो लेने वाले कभी आराम नहीं करते और इसने अच्छा-खासा मौका गँवा दिया। ठीक से कुछ पूछा नहीं। यह तो संयोग ही थ ा, कि उस दिन अचानक ही वे अपनी दुविधा सुदीप को बता बैठी थीं- 'देखते ही देखते तीन साल निकल गए। अब आगे क्या एमबीए करे या एम. फार्मा कन्फ्यूज्ड है अनुकृष्णा ।'

सुनते ही उछल पड़ा था सुदी प, बिलकुल बचपन की तरह- 'हद करती हो यार... तुम्हें नहीं पता अपना देवकीनंदन भी बंगलोर में ही तो है। डॉ. देवकीनंदन अय्यर- करियर काउंसलर। ब स, बोल दो बिटिया से... सारे कन्फ्यूजन रख दे उसका सामने जाकर। बिटिया से कह ो, मेरा नाम ल े, जाकर। कहे कि संदीप अंकल ने भेजा है। तुम्हारा नाम ल े, जाकर... बताए कि वह तुम्हारी बेटी है। बरसों बाद हमारी खबर पाकर खुशी से नाचने लगेग ा, आखिर बचपन का दोस्त है अपना ।'

उन्होंने भी तुरंत अनुकृष्णा को फोन कर दिया कि वह जल्दी ही अय्यर अंकल से इस लाइन के स्कोप की जानकारी ले ले। घबराना म त, बचपन के दोस्त हैं वे। निश्चिंत हो गई थीं। मानो किला फतह कर लिया हो।

बचपन का दोस् त, तमाम भूली-बिसरी यादें ताजा हो गईं। उनसे रहा नहीं गया। ये आजकल के बच्चे अपने ही मन की करेंगे। माता-पिता का मन रखने को भी नहीं मानते कोई बात। ब स, इनके मन का हो... जो भी हो।

इनके दोस्त... दोस्त। और माँ-बाप के दोस्त कूड़ा-करकट। उनसे रहा न गया। पुनः फोन लगाया अनुकृष्णा को। पूछें तो सह ी, तसल्ली से कि कब गई थी। कितनी देर बात क ी? क्या बात हु ई? आखिरकार दोस्त है बचपन का।

देवकीनंदन ने स्नेह से सारी जिज्ञासाओं का समाधान कर दिया होगा। बिटिया प्रसन्ना हो गई होग ी, सोचकर ही ममता से दिल भर आया उनका। सुदूर बैठी बिटिया पर नाहक ही झल्ला रही हैं वे। पूछें तो कार ण, कि क्यों नहीं लिया उनका नाम...? यू तो बड़ा प्यार जताती है माँसे। फिर माँ का नाम लेने में संकोच क्यो ं? पूछें तो... क्या हुआ वह दावा कि- मेरी माँ दुनिया की सर्वश्रेष्ठ माँ है। और वहाँ जिक्र तक नहीं किया।

पुनः उपेक्षा उनकी। बिजली-सी कौंध गई उनके दिल में। पापा ने उपेक्षा की थ ी, वे कुछ न बोली थीं। न तर् क, न विवाद। कुट्टी कर ली थी उन्होंने पापा से। न सुल ह, न समझौता...। पूरा जीवन गुजार दिया गूँगी-बहरी बनकर।

मगर अब दोबारा वही गलती नहीं करेंगी वे। वे बिटिया से कभी भी कुट्टी करने की गलती हरगिज नहीं करेंगी। वे अपने और बिटिया के बीच तथाकथित जनरेशन गैप को नहीं आने देंगी। आपस में बोल-बतियाकर वह इस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश करेंगी। स्वामी श्री तरुणसागर जी कहते हैं- 'आपस में लड़ो-झगड़ ो, फिर भी परस्पर बोलचाल बंद मत करो ।' सिम्पल लेकिन बड़ी बात... कुट्टी मत करो।

इसीलिए उन्होंने बिटिया से स्पष्ट प्रश्न किया- 'तूने क्यों नहीं बताया... कि तू मेरी बेटी ह ै? आखिर हम मित्र रहे हैं बरसों ।'

-' माँ... माँ... माँ आप जाने किस सदी की मित्रता की बात कर रही हैं। आज मित्रता नही ं, मनी है महत्वपूर्ण। मैंने बाकायदा फीस जमा करके अपॉइंटमेंट लिया था। नंबर आने पर ही काउंसलिंग के लिए गई थी। मगर आपका आदेश थ ा, सिर्फ इसलिए अपने परिचय के साथ सुदीप अंकल का जिक्र किय ा, तो अय्यर अंकल तो एकदम सतर्क हो गए। सबसे पहले उन्होंने यह कन्फर्म किय ा, कि मैंने फीस जमा करके ही उनके सेक्रेटरी से अप्‍वाइंटमेंट लिया है न।

सुदीप अंकल का नाम सुनकर प्रसन्न होन ा, हालचाल पूछना तो बहुत दूर की बात है। मा ँ, वहाँ सिर्फ प्रोफेशनल करियर काउंसलर था मेरे सामने। आप दोनों का मित्र मुझे कहीं नजर आया ही नहीं ।'

बस... इसीलिए मैंने नहीं बताया कि मैं आपकी बेटी हूँ। मैं तो शर्मिंदा हूँ... यह सोचकर कि मैंने सुदीप अंकल का नाम भी क्यों लिय ा?

मा ँ, जो सच था मैंने आपसे कह दिया। अब तो नाराज नहीं हैं न आप मुझस े? ' माँ मुझसे कुट्टी मत करना प्लीज ।' बिटिया की विनती सुन लरज गईं वे- 'पाग ल, मैं... तुझसे कुट्टी करूँग ी?' बात न की होत ी, तो अनर्थ हो जाता आज। दर्द से दिल भर आया उनका। हो सकता है पापा और उनके मध्य भी गलतफहमी ही हो। यह विचार आते ह ी, आज... आज पहली बार उनका मन हो रहा है... पापा से मिट्ठी करने का।
Show comments

बिन बालों की ब्राइड निहार सचदेव का बोल्ड एंड ब्यूटीफुल लुक, ताने मारने वालों को ऐसे दिया करारा जवाब

अपने बच्चों को सरल और आसान भाषा में समझाएं गुड टच और बेड टच, इन टिप्स की लें मदद

जल्दी करना है वेट लॉस तो फॉलो करें ये मैजिक रूल्स, रिजल्ट देखकर लोग करेंगे तारीफ

सर्दियों में इन 5 बीमारियों में बहुत फायदेमंद है संतरे का जूस, जानिए क्या है सेवन का सही तरीका

लाइफ को स्ट्रेस फ्री बनाते हैं ये ईजी टिप्स, रूटीन में करें शामिल

अरविंद केजरीवाल की राजनीति में अब शायद ही कभी फूल खिलेंगे

टेडी बियर कैसे बना वैलेंटाइन वीक का सबसे क्यूट और खास दिन? कैसे हुई टेडी डे की शुरुआत?

गट हेल्थ को करना है रिसेट तो खाएं पोषक तत्वों से भरपूर होम मेड माउथ फ्रेशनर, वेट लॉस में भी है मददगार

वैलेंटाइन वीक में क्यों मनाया जाता है चॉकलेट डे, लव हॉर्मोन के लिए कैसे फायदेमंद है चॉकलेट?

पीरियड क्रेम्प से राहत दिलाती है ये होम मेड हर्बल चाय, पेनकिलर से ज्यादा होती है असरदार