मां मुस्कुराने लगी और मुझे वह चाय का कप दिलवा दिया।
मैं जब भी चाय पीया करती, उसी कप में पीती। अब तो मैं कॉलेज जाने लगी थी, लेकिन उस स्टील कप से चाय पीने की कुछ आदत-सी हो गई थी मेरी। कॉलेज के बाद नौकरी, ऑफिस से आकर सबसे पहले मां के हाथ की चाय पीती, वही मेरे छोटे से स्टील के कप में और मां से गप्पे मारती, ऑफिस की पूरी दिनचर्या सुनाती।
मां अकसर मुझे छेड़ती हुई कहती, अब तो तुम इस कप से चाय पीना छोड़ दो, अब तुम बड़ी हो गई हो। क्या इस कप को अपने ससुराल भी ले जाओगी? क्या वहां भी इसी कप से चाय पियोगी? और जब इसी कप से चाय पियोगी तो तुम्हारी सास क्या सोचेगी? मैं मां की बातें सुनकर मुस्कुराने लगती।
आज शादी को दो साल हो गए हैं और मेरा जन्मदिन है और मेरे हाथों में सबसे अनमोल तोहफा है वह स्टील का कप।