लघुकथा – आक्रोश

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ओमप्रकाश क्षत्रिय 
गणित-विज्ञान के साथ संस्कृत की स्थिति देख कर निरीक्षक महोदय बिफर पड़े, “ बच्चों का स्तर देखा, इन्हें हिंदी-संस्कृत भी पढ़ना नहीं आती है। ”

 
“ जी सर ! इन्हें देखिए।” शिक्षक ने निरीक्षक को कहा,” ये तो अच्छे हैं, इन्हें किस ने पढ़ाया है?”
 
“ सर ! हम ने 15 दिन मेहनत कर के इन्हें पढ़ना सिखाया है, वरना प्राथमिक विद्यालय वाले पढ़ाते ही नही हैं। वे 5-5 शिक्षक हैं। दिनभर बैठे रहते हैं। बच्चे आपस में धमाल करते हैं और वे गप्पे मारते रहते हैं। वो देखिए, अभी भी बैठे हुए हैं।”
 
माध्यमिक विद्यालय के शिक्षक ने बोलना जारी रखा, “ सर, वे होमवर्क नहीं देते हैं, बारीबारी से गेप मारते हैं, बालसभा नहीं कराते हैं। क्यों बच्चों मैं सही कह रहा हूं ना ?”
“ जी सर।”
“ उन के यहां दोपहर का भोजन भी गुणवत्ता युक्त नहीं मिलता।” यह सुन कर निरीक्षक महोदय आगबबूला हो गए, “ चलो ! पहले उधर देखते हैं।”
“ कहां है दोपहर का भोजन? माध्यमिक और प्राथमिक विद्यालय में अलग-अलग गुणवत्ता का भोजन? बच्चों का भोजन भी शिक्षक खाने लगे, शर्म नहीं आती है ?” साहब गुस्से में बोले जा रहे थे।
 
इस पर प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक ने निवेदन किया, “ सर ! यह संभव नहीं है। दोनों विद्यालय में एक जैसा भोजन बनता है। चाहे तो आप देख ले ?”
“ क्यों भाई ! अलग-अलग भोजन क्यों नहीं बन सकता हैं ?”
 
“ साहब जी, दोनों स्कूल का भोजन एक ही जगह और एक ही समूह बनाता है।”
 
“ अच्छा ! मगर वह तो कहा रहा था कि....” निरीक्षक महोदय कक्षा का निरिक्षण करते हुए अपनी बात अधूरी छोड़ कर कहने लगे, “बच्चे ठीक हैं, मगर वह आप के विरुद्ध आग क्यों उगल रहा था ?” आखिर निरीक्षक ने पूछ ही लिया।
 
“ सर ! मैंने और जिला शिक्षा अधिकारी महोदय ने उस की बात नहीं मानी थी, इसलिए वह हम दोनों से नाराज है ?”
“ क्यों भाई ? ऐसी क्या बात थी ?”
“ साहब ! वह मुझ से आपसी स्थानांतर करवाना चाहता था।”
“ क्यों भाई ! उसे वहां क्या दिक्कत है ?”
“ उस का कहना है कि योग्य व्यक्ति अपनी जगह होना चाहिए।”                   
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