कुएँ का मेंढक

स्वामी विवेकानंद

Webdunia
एक कुएँ में बहुत समय से एक मेंढक रहता था। वह वहीं पैदा हुआ था और वहीं उसका पालन-पोषण हुआ। धीरे-धीरे यह मेंढक उसी कुएँ में रहते-रहते मोटा और चिकना हो गया। अब एक दिन एक दूसरा मेंढक, जो समुद्र में रहता था, वहाँ आया और कुएँ में गिर पड़ा।

कुएँ के मेंढक ने पूछा- 'तुम कहाँ से आए हो?'

इस पर समुद्र से आया मेंढक बोला- मैं समुद्र से आया हूँ। समुद्र! भला वह कितना बड़ा है? क्या वह भी इतना ही बड़ा है, जितना मेरा यह कुआँ? और यह कहते हुए उसने कुएँ में एक किनारे से दूसरे किनारे तक छलाँग मारी।

समुद्र वाले मेंढक ने कहा- मेरे मित्र! भला, समुद्र की तुलना इस छोटे से कुएँ से किस प्रकार कर सकते हो? तब उस कुएँ वाले मेंढक ने दूसरी छलाँग मारी और पूछा- तो क्या तुम्हारा समुद्र इतना बड़ा है? समुद्र वाले मेंढक ने कहा- तुम कैसी बेवकूफी की बात कर रहे हो! समुद्र की तुलना तुम्हारे कुएँ से कैसे हो सकती हैं? अब तो कुएँ वाले मेंढक ने कहा- जा ... जा! मेरे कुएँ से बढ़कर और कुछ हो ही नहीं सकता। संसार में इससे बड़ा और कुछ नहीं है! झूठा कहीं का? अरे, इसे बाहर निकाल दो।"

ND
यही कठिनाई सदैव रही
मैं हिन्दू हूँ। मैं अपने क्षुद्र कुएँ में बैठा यही समझता हूँ कि मेरा कुआँ ही संपूर्ण संसार है। ईसाई भी अपने क्षुद्र कुएँ में बैठे हुए यही समझता है कि सारा संसार उसी के कुएँ में है। मुस्लिम भी अपने क्षुद्र कुएँ में बैठे हुए उसी को सारा ब्रह्मांड मानता है।

मैं आप अमेरिका वालों को धन्य कहता हूँ, क्योंकि आप हम लोगों के इन छोटे-छोटे संसारों की क्षुद्र सीमाओं को तोड़ने का महाप्रयत्न कर रहे हैं। मैं आशा करता हूँ कि भविष्य में परमात्मा आपके इस काम में सहायता देकर आपका मनोरथ पूर्ण करेंगे ।

(15 सितंबर 1893 को दिए गए भाषण के दौरान बताई गई एक छोटी कहानी)


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