'' हा ँ, जतिन आदमी है ही ऐसा। हमेशा जीवन के सच को देखता रहता है। हमारे आसपास इतना सब कुछ घट रहा ह ै, पर हम कोई सबक नहीं ले रहे हैं। पता ह ै, जति न, बुद्ध ने एक दिन एक अर्थी को देखा और ब स, अपने जीवन को बदल लिया। ऐसा कुछ होना चाहिए जीवन में। अब देखो न! एक दिन हम बा को लेकर आए थे। आज अम्मा को लेकर आए हैं। जीवन का अंत कितना सहज है। अम्मा की सारी तकलीफों और परेशानियों का अं त, सिर्फ एक पल में कल हम अस्थि विसर्जन कर वापस चले जाएँगे ।''
हर की पौड़ी पर भीड़ बिलकुल नहीं थी। दिसंबर का महीना और तिस पर रात के आठ बजे। सर्दियों में जहाँ दिन में ही धूप नहीं निकलती थ ी, वहाँ रात का तो कहना ही क्या। चारों तरफ छाया सर्द कुहासा। मैं और जतिन दोनों घाट पर बनी एक बैंच पर बैठे हुए थे।
अम्मा नहीं रही थी ं, और हम आज ही अस्थि-विसर्जन के लिए हरिद्वार पहुँचे थे। शाम को पंडे से बात करके सीधे यहीं आ गए थे। ठंड बहुत ज्यादा थी। बचाव के लिए जितने कपड़े ले गए थ े, तकरीबन सभी हमने पहन रखे थे। पाँव में जूते-मोज े, सिर पर टोप ी, हाथ में दस्तान े, स्वेटर पर चमड़े का जर्किन और उस पर ओढ़ी हुई लोई। फिर भी ठंड भीतर घुसे जा रही थी।
मंदिर में दर्शन के लिए जूते उतारने पड़े। फर्श पर पाँव पड़ते ही ठंड के मारे रूह काँप गई। जैसे-तैसे दर्शन कर दुबारा जूते पहन े, तो जान में जान आई। फिर धीमे-धीमे कदमों से चलक र, दूसरी ओर एक घाट किनारे बैठ गए।
'' यह जगह मुझे बहुत ही अच्छी लगती है। पता है जति न, एक दिन मैं बा को विदा करने भी यहीं आया था और आज अम्मा...'' मेरी आँखों में आँसू आ गए। जतिन न े, जो कि मेरा चचेरा भाई थ ा, मेरी पीठ थपथपाई। मैंने आँसू पोंछ े, '' यह जीवन भी कितना अजीब ह ै, आदमी पैदाहोता है... जीवनभर कितने प्रपंचों में लिप्त रहता ह ै, दुःख-सु ख, ईर्ष्य ा, जल न, द्वंद् व, बड़ा-छोट ा, ऊँच-नीच। पर अंत में क्या होता है। सब निरर्थक साबित हो जाते हैं ।''
जतिन भी मेरी बात से सहमत था- ''हा ँ, आप सही कह रहे हैं। हर आदमी जानता ह ै, कि उसे एक दिन जाना है। यहाँ तो वो सिर्फ कुछ दिनों का मेहमान भर है। फिर भी संसार के प्रति हमारा मोह हमें बाँध लेता है ।''
'' हा ँ, जतिन आदमी है ही ऐसा। हमेशा जीवन के सच को देखता रहता है। हमारे आसपास इतना सब कुछ घट रहा ह ै, पर हम कोई सबक नहीं ले रहे हैं। पता ह ै, जति न, बुद्ध ने एक दिन एक अर्थी को देखा और ब स, अपने जीवन को बदल लिया। ऐसा कुछ होना चाहिए जीवन में। अबदेखो न! एक दिन हम बा को लेकर आए थे। आज अम्मा को लेकर आए हैं। जीवन का अंत कितना सहज है। अम्मा की सारी तकलीफों और परेशानियों का अं त, सिर्फ एक पल में कल हम अस्थि विसर्जन कर वापस चले जाएँगे। यानी कि अम्मा का कोई वजूद ही नहीं रहा। इस दुनिया में कोई अस्तित्व नहीं रहा। क्या यही जीवन का सार ह ै?'' मैं सुबकने लगा था।
'' क्या करें भाई साह ब, हम कर ही क्या सकते हैं। हमारे हाथ में है ही क्या ।'' जतिन बोला।
हम दोनों साथ-साथ चलने लगे। अचानक मेरी निगाह, किनारे पर नहाते एक आदमी पर पड़ी। वह डुबकी लगा रहा था। ''ये लोग पता नहीं, इतनी रात गए क्यों नहाते हैं। रात को स्नान से कौनसा पुण्य मिल रहा है।''
''पर भाई साहब, यह आदमी तो जब हम आए थे, तबसे नहा रहा
मैं थोड़ी देर चुप रह ा, '' है क्यों नहीं। जब हम जीवन को इतना समझते है ं, तो क्यों विवेकपूर्ण नहीं जी सकते। क्यों हम इतनी मोह-माया में पड़ जाते है ं? गीता में कहा है क ि, आत्मा अमर ह ै, शरीर मिट्टी है। तो इस शरीर के लिए क्यों परेशान होन ा, जो वाकई एक दिन मिट्ट ी में मिल जाएगा। हमें इस सत्य से कुछ सीखना होग ा, जतिन ।''
'' हा ँ, भाई साह ब, आप सही कहते हैं ।'' वो खड़ा हो गया। इन बातों ने उसके अंदर बेचैनी उत्पन्ना कर द ी, '' हम बदलेंगे भाई साह ब, हम अपने आपको बदलेंगे। हम बताएँगे दुनिया क ो, कि जीना किसे कहते हैं ।''
मैं भी उठ गया। ठंड बहुत अधिक हो गई थी। इतने लबादों में लिपटे होने के बाद भ ी, मैं ठंड के मारे काँप रहा था।
'' हाँ वाक ई, अब हमें नए सिरे से जीवन की शुरुआत करना होगी। जीवन का क्या भरोसा। एक पल ह ै, दूसरे पल नहीं है। जति न, अब हम प्रण करते हैं कि हमारे जीवन को कोई लो भ, लाल च, मो ह, माया नहीं छू पाएगी ।''
'' हा ँ, भाई साहब ।'' हम दोनों साथ-साथ चलने लगे। अचानक मेरी निगा ह, किनारे पर नहाते एक आदमी पर पड़ी। वो डुबकी लगा रहा था।
'' ये लोग पता नही ं, इतनी रात गए क्यों नहाते हैं। रात को स्नान से कौनसा पुण्य मिल रहा है ।''
'' पर भाई साह ब, यह आदमी तो जब हम आए थ े, तबसे नहा रहा है ।'' जतिन ने बताया। मैं चौंक गया। हम करीब एक घंटे से वहाँ बैठे थे।
'' जति न, अभी हम यही बात तो कर रहे हैं। देख ो, विचारधाराओं में कितना फर्क है। एक तरफ हम चिंतन से जीवन को नई दिशा देने की बात कर रहे हैं और दूसरी ओर हमारे सामने ही अंधविश्वास हमारे विश्वास की कैसी धज्जियाँ उड़ा रहा है। रात को नहाने से कौनसा स्वर्ग मिल रहा है।
जतिन भी हँस ा, '' पता नही ं, क्या गणित है। शायद सोचता हो कि एक डुबकी का जितना पुण्य मिल रहा ह ै, इसी हिसाब स े, डुबकी लगाता रह े, तो एक दिन भगवान खुद ही लेने आ जाएँगे।
हम हँस पड़े। हम उसके नजदीक जा पहँुचे। वो बार-बार डुबकी लगा रहा था।
'' क्यों भा ई, इतनी ठंड में तुम कौनसा पुण्य कमा रहे ह ो?'' उसने जवाब में डुबकी लगाई और जब निकला तो दोनों हाथ हमारे सामने कर दिए। उसके हाथों में दो सिक्के रखे हुए थे। मैं समझ गया। मुझे काटो तो खून नहीं। चंद सिक्के पाने के लि ए, वो रात की भीषण ठंड मे ं, गंगाजी के बर्फीले पानी मे ं, एक घंटे से डुबकी लगा रहा है।
'' तुम... तुम्हें ठंड नहीं लग रह ी?'' मेरी आवाज कमजोर पड़ गई। वो हँस ा, '' बाबूज ी, पेट की आग सारी ठंड दबा देती है ।'' भाई भी स्तब्ध थ ा, '' इतने ठंडे पानी से तुम मर जाओगे ।'' वो फिर हँस ा, '' कुछ नहीं होगा। अगर ठंडे पानी में नहीं उतरा तो मेरे साथ पूरा परिवार ही मर जाएगा ।'' कहकर उसने फिर डुबकी लगा ली। मैं सन्ना रह गया। मुझे लग ा, मेरे पाँव जवाब दे गए हैं। जतिन ने मेरा कंधा पकड़ा। हम दोनों चुपचाप होटल पहुँच गए। रास्ते भर दोनों मौन थ े, निःशब्द। कमरे का ताला खोलकर लाइट जलाई। मैं धड़ाम से बिस्तर पर जा गिरा। मैं अपने आपको बेहद थका महसूस कर रहा था। जतिन सामने रखी कुर्सी पर बैठ गया। सामने खूँटी पर अम्मा का अस्थिकलश टँगा हुआ था। थोड़ी देर बाद जतिन ने कह ा, '' भाई साह ब, भूख लग रही है। खाना खा लेते हैं ।'' मैंने सहमति में सिर हिला दिय ा, '' हा ँ, चल ो, नहीं तो होटल बंद हो जाएँगे ।'' और हम चल दिए।