पति की मृत्यु पर उसने चूड़ी, बिछिया उतार देने से साफ इंकार कर दिया। वहाँ उपस्थित सभी औरतें सकते में आ गईं। दुख की इस घड़ी में भी औरतों का कानाफूसी साफ सुनाई पड़ रही थी। एक बुजुर्ग महिला उसे एकांत में ले जाकर समझाने लगी - बहू पति की मृत्यु के संग चूड़ी, बिंदी उतार देने की परंपरा है। हम बिरादरी में क्या मुँह दिखाएँगे।
- बुआ आत्मा अमर है। तुम सब हर क्षण राग अलापते रहते हो। उसने धीमे से कहा।
- हाँ सो तो है ही।
- फिर उसकी अमर आत्मा के लिए मैं सब कुछ पहने रखूँगी। ये सब मेरे प्रिय को प्रिय थे । इन्हें उतारकर मैं उनकी आत्मा नहीं दुखाना चाहती।
- बहू मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ। ये हमारे धर्म के रिवाज हैं।
- बुआ थोथे रिवाजों को क्यों बाँधकर रखा जाए।
- तुझे सुहाग के लुट जाने का गम नहीं है क्या बहू?
मेरे दुख को तुम्हारे रिवाज नहीं समझ सकेंगे। मैं दुख का प्रदर्शन नहीं करना चाहती बुआ जी। उसकी भीगी आवाज में दृढ़ता थी।