* प्राचीन काल में कुंड चौकोर खोदे जाते थे। उनकी लंबाई, चौड़ाई समान होती थी। यह इसलिए कि उन दिनों भरपूर समिधाएं प्रयुक्त होती थीं।
घी और सामग्री भी बहुत-बहुत होमी जाती थी, फलस्वरूप अग्नि की प्रचंडता भी अधिक रहती थी। उसे नियंत्रण में रखने के लिए भूमि के भीतर अधिक जगह रहना आवश्यक था। उस स्थिति में चौकोर कुंड ही उपयुक्त थे। पर आज समिधा, घी, सामग्री सभी में अत्यधिक महंगाई के कारण किफायत करती पड़ती है।
ऐसी दशा में चौकोर कुंडों में थोड़ी ही अग्नि जल पाती है और वह ऊपर अच्छी तरह दिखाई भी नहीं पड़ती। ऊपर तक भरकर भी वे नहीं आते तो कुरूप लगते हैं। अतएव आज की स्थिति में कुंड इस प्रकार बनने चाहिए कि बाहर से चौकोर रहें। लंबाई-चौड़ाई, गहराई समान हो।
* कितने हवन कुंड बनाए जाएं?
कुंडों की संख्या अधिक बनाना इसलिए आवश्यक होता है कि अधिक व्यक्तियों को कम समय में निर्धारित आहुतियां देना संभव हो। एक ही कुंड हो तो एक बार में 9 व्यक्ति बैठते हैं।
यदि 1 ही कुंड होता है, तो पूर्व दिशा में वेदी पर 1 कलश की स्थापना होने से शेष 3 दिशाओं में ही याज्ञिक बैठते हैं। प्रत्येक दिशा में 3 व्यक्ति एक बार में बैठ सकते हैं।
यदि कुंडों की संख्या 5 है तो प्रमुख कुंड को छोड़कर शेष 4 पर 12-12 व्यक्ति भी बिठाए जा सकते हैं ।