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संस्कृत पांडुलिपियों का संरक्षण जरूरी

पांडुलिपियों को सहेजने पर कार्यशाला

Webdunia
- सौरभ शर्म ा
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रायपुर के संस्कृत महाविद्यालय में इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के सौजन्य से पांडुलिपियों को सहेजने की विधियों को लेकर कार्यशाला चल रही है। नष्ट होती संस्कृत की महान विरासत को बचाए रखने के लिए ऐसे प्रयास काफी अहम हैं। संस्कृत महाविद्यालय में बड़ी संख्या में पुरानी पांडुलिपियाँ हैं जो संरक्षण के अभाव में खराब हो रही हैं, कार्यशाला से इन्हें सहेजने में मदद मिलेगी।

कार्यशाला में परंपरागत तरीकों से पांडुलिपियों को सहेजने की विधियाँ बताई गई हैं। यह काफी उपयोगी हो सकती हैं, क्योंकि इन्हीं विधियों के प्रयोग से ऋग्वेद की कुछ ऐसी पांडुलिपियाँ भी संरक्षित रहीं जो हजार साल पहले लिखी गई थी।

फिर भी यह कहना होगा कि इस संबंध में आधारित ढाँचा बनाए बगैर इस प्रकार की कवायद व्यर्थ ही होगी। पांडुलिपियों के संरक्षण के लिए एक तंत्र तैयार कर सरकार को संरक्षण की आधुनिक विधियों को अपनाना होगा, जैसा कि भंडारकर शोध संस्थान, पुणे जैसी संस्थाओं में अपनाया जा रहा है। इन्हें न केवल संरक्षित करने की जरूरत है, अपितु इनके विषय-वस्तु का अत्याधुनिक विधियों द्वारा स्कैन करना भी जरूरी है ताकि इन्हें जरा भी क्षति पहुँचाए बगैर इनकी सामग्री सुरक्षित रखी जा सके।

दरअसल, जब भारत में मैकाले शिक्षा पद्धति लागू की गई तो एक षड्यंत्र के तहत केवल यूरोपीय पद्धति पर आधारित शिक्षा को भारत में लागू किया गया। इसके पीछे मकसद केवल क्लर्क तैयार नहीं करना था, अपितु साथ ही भारत के पाश्चात्यीकरण की तैयारी भी करनी थी, लोगों के मन में संस्कृत भाषा के प्रति हीनभावना भरनी थी।

जब आधुनिक शिक्षा पद्धति पर प्राच्यविदों और उपयोगितावादियों में बहस छिड़ी तब मैकाले बीच का रास्ता निकाल सकते थे जिसमें आधुनिक ज्ञान भी शामिल होता और 4000 से भी अधिक साल का संचित ज्ञान भी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। संस्कृत केवल धर्म-कर्म की भाषा रह गई और अंग्रेजी ज्ञान-विज्ञान की भाषा के रूप में जानी गई। यही वजह है कि नई पीढ़ी के जो बच्चे हैरी पॉटर श्रृंखला के प्रति दीवानगी दिखाते हैं। पंचतंत्र जैसी रचनाओं के बारे में अनजान हैं, जबकि इनमें एक सुंदर कहानी के पीछे एक संदेश भी निहित था जो भारतीय शिक्षा पद्धति का सार था।

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पांडुलिपि संरक्षण के संबंध में हमारी लापरवाही का नतीजा ही था कि भारत में सबसे पहली बार संस्कृत सीखने वाले प्राच्यविद विलियम जोन्स को अभिज्ञान शाकुन्तलम की केवल एक पांडुलिपि ही मिली और वह भी बांग्ला लिपि में। जब विलियम जोन्स ने अभिज्ञान शाकुन्तलम पढ़ना शुरू किया तो अध्ययन के मध्य ही उन्होंने अपने पिता को पत्र लिखा कि मैं दो हजार वर्ष पुराने एक संस्कृत नाटक का अध्ययन कर रहा हूँ, इसका लेखन हमारे महान लेखक शेक्सपीयर के इतना निकट है कि ऐसा भ्रम होने लगता है कि शेक्सपीयर ने कहीं शाकुन्तलम का अध्ययन तो नहीं किया।

जोन्स का यह पत्र उस समय प्रकाशित नहीं हुआ अन्यथा यूरोप में बड़ी खलबली मचती। मैक्समूलर ने जिन्होंने 'सेक्रेड बुक ऑफ ईस्ट' की रचना की, संस्कृत साहित्य के बारे में लिखा कि शुरुआत में संस्कृत समझना काफी जटिल होता है, लेकिन जब आप अभ्यस्त होते जाते हैं तो ज्ञान का अपूर्व खजाना और जीवन को देखने की एक नई दृष्टि आपके भीतर विकसित होती है। यहाँ हमें समझना होगा कि संस्कृत की महान धरोहर की उपेक्षा कर, हम 4000 साल से अधिक पुराने समय के संचित ज्ञान को खो देते हैं।

जो लोग संस्कृत को केवल कर्मकांड की भाषा ही समझते हैं, वह भूल जाते हैं कि अर्थशास्त्र वैसी ही रचना है जैसे कि मैकियावेली के प्रिंस। भास्कराचार्य की रचना लीलावती गणित की ऊब से भरी अंग्रेजी किताबों का एक अच्छा विकल्प प्रस्तुत करती है। अपनी बेटी को गणित सिखाने के लिए लिखी इस रचना में भास्कराचार्य ने कहानी कहने के अंदाज में गणित की बुनियादी समस्याएँ हल करने की आसान विधियाँ बताईं।

संस्कृत साहित्य के प्रति उदासीनता के चलते हम भवभूति और बाण जैसे महान लेखकों की रचनाओं के आनंद से वंचित रह जाते हैं। उपनिषदों में यम-नचिकेता संवाद अथवा याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद हमें दर्शन की गहराइयों में ले जाते हैं। यह केवल बौद्धिक खुराक के लिए जरूरी नहीं, अपितु जीवन के संबंध में आँखें खोल देने वाला अनुभव होगा जिससे हम अपने मनुष्य होने की गरिमा को और बेहतर ढंग से महसूस कर पाएँगे।

ऐसे समय में जब अमेरिका के हॉवर्ड जैसे माने हुए विश्वविद्यालय अपने पाठ्यक्रम में गीता और पंचतंत्र शामिल कर रहे हैं, भारतीय शिक्षा पद्धति में इनके प्रति उदासीनता झलकती है। जैसा कि एक पुरानी कहानी है कि राक्षस की जान तोते में रहती है, तोता खत्म तो राक्षस भी खत्म। वैसे ही पांडुलिपि संरक्षण के कार्यक्रमों को तभी सार्थकता मिलेगी, जब लोग संस्कृत भाषा के जादू को जान पाएँगे।

पांडुलिपि संरक्षण के लिए नई पीढ़ी को जागरूक करने की जिम्मेदारी भी सरकार की है। यह तभी हो पाएगा जब उन्हें संस्कृत साहित्य की समृद्धि का ज्ञान होगा। इसके लिए भी हमें बड़ी मनोवैज्ञानिक लड़ाई लड़नी होगी।

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