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नुकसान की भरपाई के लिए एक करोड़ की मांग

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अपना इंदौर

महू की अंगरेजी फौज के सहारे अंगरेज अधिकारियों ने महू को बचा लिया था किंतु उन्होंने इंदौर व सेंट्रल इंडिया में ऐसी अफवाहें फैलानी प्रारंभ कर दी थीं कि ब्रिटेन सेबहुत बड़ी गोरों की पल्टन विद्रोहियों व उनके सहयोगियों को दंडित करने के लिए रवाना हो चुकी है जो शीघ्र ही महू पहुंचने वाली है। ऐसी खबर के जरिए वे भारतीयों को भयभीत करना चाहते थे ताकि अन्य स्थानों पर विद्रोह न हो और जिन्होंने विद्रोह किया है उनके मनोबल गिर जाएं। सीतामऊ का वकील वजीर बेग अपने 29 जुलाई 1857 के पत्र में लिखता है-
 
'इस जगे बी खबर आम सुनते हें कि ईनदोर को सब उड़ा देना और रईयत को कतल कर डालना। अंगरेजों की बलात (बिलायत) से पचास हजार गोरा सारी हिन्दस्तान के ऊपर चला सुनते हें। दस गोरा बड़ा साहेब हमलटीन (हेमिल्टन) के साथ आता सुनते हें। गुना-बेगुना फांसी देते हें, तोपों से उड़ाते हें। जो कोई अरज करे के आप हाकिम हें मुनसफी (इंसाफ) करें। दर जबाब कहेते हें के अंम अब काले आदमी किसी को नहीं छोड़ेगा।'
 
वजीर बेग स्वयं कितना भयभीत था उसके भाव इन पंक्तियों में अभिव्यक्त हुए हैं- 'अंम (हम) बचते किसी डोल से नजर आते नहीं हें, क्या करें, ताबेदार हें... हमारे मरने से मालकों का भला हो तो हमें मरने से कदी इंकार नहीं हे।'
 
अंगरेजों ने महाराजा तुकोजीराव होलकर को पत्र लिखकर कहाकि वह अपना गोला-बारूद व बड़ी-बड़ी तोपें अंगरेजों के हवाले कर दे। महाराजा के सामने और भी अनेक शर्तें रखी गईं, जिनका पालन महाराजा से अपेक्षित था। वजीर बेग लिखता है-
 
'ओर अंगरेजों के महाराज हुलकर सवाल हे के तोपें जो बड़ी-बड़ी हें, सो हमें दे दो, बाईस रिसालों को मोकुफ कर दो, दोनों पलटने छुड़ा दो, ताईबाई व महाराजा के सगे भाई कासीराव दादा वा ताईबाई का सगा भतीजा जो फौज का करनेल हे ओर एक आसामी ओर ये हमें दे दो वा एक करोड़ रुपया छावनी के नुकस्यांन का ओर ये सवाल हमारा मानो तो तुमारी हमारी सफाई हे। ऐसा रंग हो रहा हे। फोज में सुबे स्यांमे फसाद होता नजर आता हे।' महाराजा होलकर ने अंगरेजों द्वारा प्रस्तुत उक्त शर्तों में से एक भी नहीं मानी और न ही भविष्य में उनके पालन का कोई आश्वासन दिया अलबत्ता होलकर दरबार द्वारा ऐसे उपक्रम अवश्य किए जाते रहे जिनसे यह दिखावा हो सके कि होलकर महाराजा अंगरेजों की सहायता करना चाहते हैं किंतु परिस्थितियां प्रतिकूल होने के कारण वे ऐसा नहीं कर पा रहे हैं।
 
विद्रोहियों को पकड़वाने के लिए नकद इनाम की घोषणा
 
इंदौर नगर में यह खबरबड़ो जोरों पर थी कि ईद के दिन फिर से बगावत होगी। इस खबर से स्वयं महाराजा होलकर भी चिंतित थे। उन्होंने यह समाचार लेकर कार्यवाहक प्रधानमंत्री राव रायचंद्रराव रेशिमवाले को महू भेजा ताकि अंगरेज अधिकारियों को आशंकित खतरे की पूर्व सूचना मिल जाए।
 
भावी विद्रोह को विफल करने व अंगरेजों को संतुष्ट करने के लिए महाराजा ने कुछ सैन्य अधिकारियों तक को गिरफ्तार करने के आदेश दे दिए थे। वजीर बेग लिखता है-
 
'कल मी. सावन सुदी 6 (मंगलवार, जुलाई 28, 1857) को मेजर मजकूर के गीरफतारी में बाड़े के दरवाजे बंद हो गए थे वा साहदा फोज बाजार व बाड़े के गिरदपेश थी, बाज्यार बंद हो गया था। कल हत्यार चलने वा सेहर लुटने में कसर ने थी, लेकिन खुदा ने खेर की... ईस जगे की हवा ऐसी हो रही हे के घड़ी-घड़ी रंग बदल रहा हे। अकल होस अंगरेजों के गुम हें। हिन्दुस्तानी सबके अकल होस गुम हें। क्या करें जमाने से हम बी हो रहे हें, घबराहट का ये हाल हे के दिन में दो दफे बाजार व बाड़े के दरवाजे बंद होते हें, हम किस गिनती में हेंगे?'
 
उधर महू में रेसीडेंट डुरेंड की वापसी के बाद सेंट्रल इंडिया में ब्रिटिश प्रभुसत्ता को पुनःस्थापित किए जाने के प्रयास तेज कर दिए गए थे। उन्हीं दिनों महू से दो सूचनाएं जारी की गईं। पहली सूचना में कहा गया था कि विद्रोहियों या विद्रोहियों को सहायता देने वाले रईसों को सजा देने का अधिकार केवल लाट साहब को है कोई अन्य व्यक्ति उन्हें दंडित नहीं करेगा। अर्थात्‌ देशी रियासत के नरेशों से यह अधिकार प्रकारान्तर से छीना गया था।
 
दूसरे सूचना-पत्र में विद्रोहियों को पकड़वाने पर ईनामों की घोषणा की गई थी। सर्वसाधारण को कहा गया था कि जो व्यक्ति फौज के विद्रोही सिपाहियों को या लिपिक वर्ग के व्यक्ति को सशस्त्र पकड़वाएगा उसे 50 रु. प्रति व्यक्ति इनाम दिया जाएगा। जो व्यक्ति विद्रोही को बिना हथियार के पकड़वाएगा उसे 30 रु. का पुरस्कार दिया जाएगा। इनके अलावा यदि किसी व्यक्ति द्वारा दिए गए सुराग पर भी किसी बागी को पकड़ लिया जाएगा तो उसे भी ऊपर लिखे अनुसार ही ईनाम दिए जाने का लालच दिया गया था।
 
अंगरेजों द्वारा उठाया गया यह कदम भी असफल रहा क्योंकि भारतीयों ने अपने भाइयों की मदद की और जिन लोगों के विषय में वे जानकारी रखते थे, उसे ईनाम की लालच में अंगरेजों को नहीं बताया।
 
क्रांतिकारियों के बीच पैदा हुई अविश्वास की खाई
 
चार जुलाई 1857 को इंदौर के क्रांतिकारियों का दल इंदौर से रवाना हुआ। देवास, मक्सी, शाजापुर होते हुए ब्यावरा पहुंचा। ब्यावरा के ठाकुर सा. ने दिल खोलकर शुभकामनाएं और कुछ भेंट इस दल को प्रदान की। राघौगढ़ के अधिकारियों ने विजेता योद्धाओं के समान उनका स्वागत किया और सैनिकों को रसद प्रदान की।
 
इस दल में इंदौर का प्रभावी नेता भागीरथ भी था। भागीरथ के बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर किसी ने सआदत खां के कान भर दिए कि भागीरथ काली वर्दीधारी अपने 100 सिपाहियों के साथ गद्दारी करने आया है। इस आशंका के कारण सआदत खां ने भागीरथ को शिवपुरी में कैद कर लिया और उस पर पहरा लगा दिया। काली वर्दीधारी सिपाहियों के क्रोध का ठिकाना न रहा क्योंकि उन्हें संदेह की दृष्टि से देखा गया था। क्रांतिकारियों के मध्य आशंका का पैदा होना दुर्भाग्यपूर्ण था। उन्होंने सआदत खां के दल से अलग होकर सीधे दिल्ली पहुंचने का निर्णय लिया। जाने से पहले विरोधस्वरूप इन सैनिकों ने सारे शिविर में तबाही मचा दी और वे दतिया की ओर चल दिए।
 
मुरार के विद्रोहियों ने 14 दिन तक अपना शिविर डाले रखा। यहीं पर इंदौर व महू के क्रांतिकारियों ने सआदत खां पर दबाव डाला कि वह भागीरथ को मुक्त कर दे। इस दबाव के कारण भागीरथ मुक्त कर दिया गया। क्षुब्ध होकर अब भागीरथ ने भी सआदत खां का साथ छोड़ दिया और अपने 7 साथियों के साथ उसने भी सीधे दिल्ली जाने का निर्णय लिया। उसके दल में बशीर खां, करीम खां, रमजान खां, दाजी मराठा, महादेव ब्राह्मण, मुरारी व कासल नामक व्यक्ति थे।
 
यह दल मुरार से सबलपुर और वहां से खड़गपुर होता हुआ मथुरा पहुंचा। यहां इन लोगों ने एक दिन विश्राम किया और फिर अपनी मंजिल की ओर चल दिए। ये लोग कोसीगांव, बेदाल, पलवल होते हुए दिल्ली से 16 कोस की दूरी पर वल्लभगढ़ नामक स्थान पर रुक गए।
 
यहां इस बात का उल्लेख करना उचित होगा कि उन दिनों दिल्ली से ब्रिटिश सत्ता के पैर उखाड़ दिए गए थे और मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर के नेतृत्व में लाल किले सहित सारी दिल्ली पर क्रांतिकारियों का अधिकार हो गया था। संपूर्ण उत्तरी भारत से क्रांतिकारी सिपाही दिल्ली पहुंच रहे थे और मुगल सम्राट की फौज में सम्मिलित होकर अंगरेजों को भारत से खदेड़ने के लिए कटिबद्ध थे। वल्लभगढ़ से ये लोग दिल्ली पहुंचे जहां का विवरण उन्हीं की जबानीपेश है जो उन्होंने अपने बयान में दिया था-
 
'दिल्ली पहुंचकर हम द्वार पर रुक गए और घोड़ों को सईस को दिए। पैदल नगर में प्रवेश किया और जेष्ठतम (मुगल) शहजादे मिर्जा खुर्रेश के कुछ आदमियों से मिले। मिर्जा हमें बादशाह के पास ले गया। उस समय बादशाह दीवान-ए-खास में आराम कर रहे थे। इसलिए दो घड़ी तक हमें प्रतीक्षा करनी पड़ी। जब हमें बुलाया गया तो हम बादशाह के सामने हाजिर हुए और उन्हें सलाम किया...।'
 
इस प्रकार इंदौर के क्रांतिकारियों का उक्त दल अंतत: बादशाह से मुखातिब होने में सफल हो गया।

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