इंदौर का प्राचीनतम गणेश मंदिर, खतों के आईने में

अपना इंदौर
-नवीन व्यास
 
जूनी इंदौर स्थित गणपति मंदिर संभवत: नगर का सबसे प्राचीन मंदिर है। यह मंदिर सरस्वती नदी के पूर्वी तट पर एक ऊंचे टीले पर बना हुआ है। मंदिर की पीठिका में लगे हुए कुछ शिलाखंडों को देखने से जान पड़ता है कि इस स्थान पर परमार काल (9वीं से 12वीं सदी) में किसी देवालय का निर्माण करवाया गया था जिस पर आगे चलकर राजपूत काल में इस मंदिर का विस्तार किया गया। इस मंदिर को होलकरों का भी पर्याप्त संरक्षण मिला।
 
इस मंदिर के पुजारी श्री भालचंद्रजी पाठक से 10 पत्र प्राप्त हुए हैं, जो ऐतिहासिक महत्व के हैं। ये सभी पत्र होलकर शासकों की धार्मिक नीति पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालने वाले हैं। सभी पत्र मोड़ी लिपि में लिखे गए हैं। इन पत्रों की एक और विशेषता यह है कि इनमें तिथियों को अरबी शब्दों में अंकित किया गया है।
 
श्री पाठक के संग्रह से प्राप्त पत्रों में सबसे पुराना पत्र बुधवार, दिसंबर 25, 1759 का है। इस पत्र द्वारा इंदौर परगने के तत्कालीन कमाविसदार खंडो बाबूराव को निर्देश दिया गया है कि वेदमूर्ति राजश्री हणमंत भट्ट (श्री पाठक के पूर्वज) को पिपल्या राव नामक गांव (वर्तमान में पिपल्या पाला के समीप स्थित गांव) में 50 बीघे जमीन धर्मार्थ प्रदान की गई है। श्री भट्ट से वृद्धावस्था के कारण उस पर खेती नहीं होती है। अत: उस भूमि पर कृषि करवाई जाय तथा राज्य द्वारा निर्धारित तौजी रु. 75 लेकर शेष आय भट्टजी को प्रदान की जाय।
 
अगला पत्र होलकर राज्य के संस्थापक सूबेदार मल्हारराव होलकर की पत्नी और खासगी जागीर की अधिकारिणी सौ. द्वारकाबाई होलकर द्वारा मंगलवार, जनवरी 25, 1760 को जारी किया गया है। यह पत्र इंदौर परगने के कमाविसदार श्री कृष्णाजी तानदेव को लिखा गया है। इस पत्र के माध्यम से उन्हें यह आदेश दिया गया कि वे (जूनी इंदौर स्थित) गणपति मंदिर हेतु प्रतिमास चतुर्थी के दिन आधा सेर सेंदूर तथा पौन सेर घी इत्यादि बराबर देते रहें। खासगी विभाग से मंदिर की धार्मिक क्रियाएं संपन्न करवाने हेतु कुछ और भी सामग्री प्रदान की जाती थी जिसका उल्लेख इस पत्र में किया गया है।
 
तीसरा पत्र अहिल्याबाई होलकर द्वारा इंदौर परगने के कमाविसदार खंडो बाबूराव को लिखा गया है। इस पत्र द्वारा बताया गया है कि जूनी इंदौर स्थित गणपति मंदिर में भादव मास की शुक्ल पक्ष चतुर्थी के दिन उत्सव मनाया जाता है। उस उत्सव के दिन 25 ब्राह्मणों को भोज करवाकर उन्हें नगद दक्षिणा भी प्रदान की जाती रही। उस उत्सव के लिए राज्य की ओर से सहायता प्रदान की जाती थी। ब्राह्मण भोज हेतु सामग्री और दक्षिणा हेतु रुपए भी राज्य द्वारा पुजारी को दिए जाते थे। यह पत्र भविष्य में इस व्यवस्था को बनाए रखने के लिए लिखा गया है। पत्र पर बुधवार, 30 जनवरी 1760 की तिथि अंकित है।
 
अगला पत्र मालेराव होलकर की मुद्रा से गुरुवार, जनवरी 22, 1767 को जारी किया गया है। यह पत्र पिपल्या राव (गांवों) के मुकद्दम के नाम जारी किया गया है जिसके माध्यम से उसे आदेश दिया गया है कि सूबेदार मल्हार राव होलकर ने सीमानंद भट्‌ट के पुत्र वेदमूर्ति हणमंत भट्‌ट को पिपल्याराव नामक गांव में 50 बीघा भूमि धर्मार्थ दान दी थी। उक्त मौजे के अधिकारी ने भट्टजी से नई सनद की मांग की थी। भट्ट ने दरबार से प्रार्थना की थी जिसके उत्तर में उन्हें यह पत्र भेजा गया था।
 
पांचवां पत्र शनिवार, जून 27, 1767 को अहिल्याबाई द्वारा राजश्री केदार मुकाती को लिखा गया है। इस पत्र में उन्हें निर्देश दिया गया है कि वेदमूर्ति हणमंत भट्ट व कालू भट्ट को सूबेदार मल्हारराव होलकर ने गणपति मंदिर की व्यवस्था व पूजा हेतु 25 बीघे जमीन इंदौर परगने में प्रदान की थी। कुछ अधिकारियों ने उसकी तौजी के 25 रु. स्वीकारने से इंकार किया था। इस पत्र में हिदायत दी गई थी कि ऐसा न किया जाय व पूर्व परंपरा को बनाए रखा जाए।
 
अगला पत्र जो शुक्रवार, सितंबर 13, 1767 को लिखा गया है, तत्कालीन समाज की एकता पर प्रकाश डालता है। इस पत्र के माध्यम से इंदौर नगर में निवास करने वाली विभिन्न जातियों व व्यवस्थाओं के पटेलों को आदेश दिया गया है कि प्रतिमाह जूनी इंदौर स्थित गणपति मंदिर के उत्सव हेतु निर्धारित आवश्यक सामग्री देते जाएं।
 
इस्लाम धर्मावलंबी देते थे मंदिर के लिए सहयोग राशि
 
यह आदेश पटेल चूनेवाला, पटेल तेली, पटेल माली, पटेल सिकलीगर, पटेल सुतार, पटेल पेनीवाला, पटेल कुम्हार, पटेल तमोली, पटेल जीनगर व पटेल नाई के साथ-साथ पटेल पिंजारा को भी जारी किया गया था। पिंजारा जाति ने इस्लाम स्वीकार कर लिया था तथापि उनकी प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा अनुसार वे गणपति मंदिर को दान देते थे। यह इंदौर की सांप्रदायिक एकता का श्रेष्ठ उदाहरण है। 7वां पत्र, शुक्रवार, फरवरी 26, 1768 को लिखा गया था जिसमें श्री हणमंत भट्ट को दान में दी गई भूमि का उल्लेख है।
 
यात्री ब्राह्मणों को संरक्षण
 
अगला पत्र सोमवार, 27, दिसंबर 1784 को लिखा गया है जिसमें राज्य के कामदारों, थानेदारों, राहदारों व जमींदारों को सूचित किया गया है कि कालू भट्ट ब्राह्मण 'इंदूरकर' महेश्वर होकर अपने पुत्र के यज्ञोपवीत हेतु नासिक जा रहे हैं। उनके साथ 3 घोड़ियां, 7 मनुष्य व परिवार हैं, उन लोगों को सकुशल इंदौर राज्य की सीमा पार करवा दी जाय। पत्र से स्पष्ट है ब्राह्मणों को उनकी यात्रा के दौरान भी पर्याप्त संरक्षण दिया जाता था। भट्ट के नाम के अंत में'इंदूरकर' लिखा जाना, उत्तर भारतीय ब्राह्मण परिवार पर मराठा प्रभाव दर्शाता है।
 
9वां पत्र देवी अहिल्याबाई होलकर द्वारा मंगलवार, 10 मई 1785 को लिखा गया है जिसमें इंदौर के कमाविसदार राजश्री खंडो बाबूराव लागर को निर्देशित किया गया। जूनी इंदौर स्थित गणपति मंदिर की पूजा के लिए राज्य की ओर से प्रतिवर्ष 40 रु. दिए जाते रहे हैं। मामलेदार ने इस परंपरा को अस्वीकार कर दिया था जिसे बनाए रखने की हिदायत इस पत्र में दी गई थी। प्राप्त अंतिम पत्र 23 जुलाई 1856 को महाराजा तुकोजीराव (द्वितीय) के शासनकाल में लिखा गया है। इस पत्र में गणपति मंदिर (जूनी इंदौर) को राज्य द्वारा प्रतिवर्ष दी जाने वाली राशि रु. 40 के स्थान पर 30 रु. दर्शाई गई है, किंतु इस सनद में 'वर्तमान व भावी कमाविसदार, इंदौर' अंकित किया गया है। इस पत्र की यही विशेषता है कि वर्तमान के साथ-साथ भावी अधिकारियों को भी ताकीद दी गई थी कि वे इस परंपरा को जारी रखें।
 
इस प्रकार प्राप्त उक्त पत्र जूनी इंदौर स्थित गणपति मंदिर की न केवल प्राचीनता को सिद्ध करते हैं अपितु राज्य व समाज द्वारा इस मंदिर को जो आश्रय प्राप्त था, उसे भी दर्शाते हैं। भादो मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी परइस मंदिर में उत्सव मनाने की परंपरा अति प्राचीन है जो आज भी यथावत है।
 
इंदौर के बड़े गणपति
 
इंदौर नगर के पश्चिम छोर पर स्थित 'बड़े गणपतिजी' के मंदिर की गणना भारत के प्रसिद्ध गणेश मंदिरों में की जाती है। इसका कारण इस मंदिर और इसमें स्थापित श्री गणेशजी की मूर्ति की प्राचीनता नहीं अपितु अभिनवता है। यहां स्थापित श्री गणेशजी की मूर्ति संभवत: विश्व की सबसे ऊंची और विशाल श्री गणेश मूर्ति है।
 
श्री गणेशजी के इस विराट स्वरूप की कल्पना अवंतिका (उज्जैन के 11 प्राचीन नामों में से एक) निवासी स्व. श्री नारायणजी दाधीच को आज से लगभग 116 वर्ष पूर्व, जब वे 16-17 वर्ष के थे, हुई। उन्हें बचपन से श्री गणेशजी का ईष्ट था। एक दिन रात्रि को स्वप्न में उन्होंने श्री गणेश के विराट स्वरूप के दर्शन किए। वह विराट स्वरूप उनके हृदय पटल पर अंकित हो गया। उसी दिन से वे अपने इस स्वप्न को साकार करने की धुन में रम गए। रात-दिन उन्हें यही लौ लगी रहती कि स्वप्न में श्री गणेशजी का जो विराट स्वरूप उन्होंने देखा उसे साकार मूर्ति के रूप में किस प्रकार स्थापित किया जाए। अपनी इसी साधना की सिद्धि की अपेक्षा में वे अवंतिका से प्रत्येक बुधवार को 4 किलोमीटर दूरी पर स्थित 'चिंतामण गणेश' मंदिर जाते थे और अपने मनोरथ की प्राप्ति हेतु श्री गणेशजी से याचना करते। वे पूजा-पाठी और कर्मकांडी थे। इसी याचना में 10 वर्षों का एक लंबा और संघर्षमय समय गुजर गया। आर्थिक समस्याओं से ग्रस्त श्री नारायणजी दाधीच अवंतिका से इंदौर आ गए और यहीं आकर उनका वह स्वप्न साकार हुआ।
 
जिस स्थान पर आज बड़े गणपति का मंदिर है, उस स्थान पर पहले खेती होती थी। आस-पास झाड़ियां थीं। यह खेत बोंदरजी पटेल हांकते थे। वे श्री नारायणजी दाधीच के संपर्क में आए। बोंदरजी धरम ध्यानी आदमी थे और जब नारायणजी ने उस भूमि पर श्री गणेश मंदिर की स्थापना की रूपरेखा उनके सामने रखी तो वे इस निमित्त, नाममात्र के मूल्य पर उस भूमि को श्री नारायणजी को विक्रय करने के लिए तत्पर हो गए। 100 गुना 100 की इस चौरस भूमि की विक्रय रजिस्ट्री केवल बयासी रुपए बारह आने की हुई।
 
भूमि की समस्या हल हो जाने के पश्चात मूर्ति स्थापना का कार्य प्रारंभ हुआ। श्री गणेशजी की इस विराट मूर्ति के निर्माण के लिए आगरा, अजमेर और लश्कर से कारीगर बुलाए गए व मूर्ति के स्वरूप व आकार-प्रकार के संबंध में नगर के तत्कालीन विद्वानों और कलाकारों की राय भी आमंत्रित की गई। अंत में जो विराट स्वरूप आज विद्यमान है, वह आकृति सर्वसम्मति से निश्चित की गई।
 
उन दिनों सीमेंट का प्रचलन नहीं था और इतनी विशाल पत्थर की मूर्ति गढ़ना आयोजकों के लिए आर्थिक कारणों से संभव नहीं था। इसलिए इसके निर्माण हेतु ईंट, चूने, रेती और बालू रेती का प्रयोग किया गया तथा उसमें गुड़ और मैथीदाने का मसाला बनाकर मिलाया गया। इस मसाले में समस्त तीर्थों का जल और सप्तपुरियों अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची, अवंतिका और द्वारका (जिन्हें मोक्षपुरियां भी कहा जाता है) की मृतिका (मिट्टी) मिलाई गई। इसके अतिरिक्त हाथीखाना, घुड़साल और गौशाला इत्यादि स्थानों की मृतिकाएं भी इसमें मिश्रित की गई और विधि-विधान अनुसार पांच रत्न- हीरा, माणक, मोती, पन्ना और पुखराज तथा समस्त धातुओं जैसे सोना, चांदी, तांबा, पीतल, लोहा, सीसा, कथीर इत्यादि व निर्धारित वनस्पतियों का प्रयोग भी इसमें किया गया। धातुओं का प्रयोग सरियों के रूप में किया गया है। मस्तक और मुख के निर्माण में सोना और चांदी, कान, हाथ और सूंड में तांबे तथा पैरों में लोहे के सरियों का उपयोग किया गया है।
 
इस मूर्ति के निर्माण में ढाई वर्ष का समय लगाऔर संवत्‌ 1961 माघ सुदी चतुर्थी (संकष्ट चतुर्थी) को सिंह लग्न में मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की गई जिसमें देश के अनेकानेक संत, महात्मा एवं इंदौर नगर के प्रतिष्ठित विद्वान लोग उपस्थित थे।
 
इस मूर्ति की ऊंचाई चरणों से मुकुट तक 25 फुट है। यह 4 फुट ऊंची चौकी पर विराजमान है। मूर्ति की चौड़ाई 14 फुट है। यह श्री गणेशजी का चतुर्भुज वाहिनी सूंड वाला स्वरूप है। मूर्ति बन गई, प्राण प्रतिष्ठा हो गई, किंतु अर्थाभाव के कारण मंदिर बनना तो दूर श्री गणेशजी के इस विराट स्वरूप पर छाया करने के साधन भी न जुट सके और इस तरह 13 वर्षों तक गणपतिजी खुले आकाश के नीचे विराज कर धूप, सर्दी और बरसात सहन करते रहे।
 
इसके बाद मूर्ति पर छाया के लिए पतरों की चोपेली छत, लकड़ियों की कैंचियों पर बनाई गई तथा 38 वर्ष तक मंदिर इसी स्थिति में रहा। बड़े गणपति मंदिर का जीर्णोद्धार वर्ष 1954 में किया गया और पतरों की चोपेली छत के स्थान पर 30 गुना 30 फुट के पक्के हॉल का निर्माण किया गया।
 
श्री बड़े गणपति का यह प्रसिद्ध मंदिर एयरपोर्ट रोड पर सुभाष प्रतिमा के निकट स्थित है। यहां भादवा महीने की चतुर्थी को मेला लगता है। अब इस चौराहे को 'बड़ेगणपति चौराहा' के नाम से जाना जाता है।

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