Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

महाराजा होलकर को पुरस्कृत करने से इंकार

हमें फॉलो करें महाराजा होलकर को पुरस्कृत करने से इंकार
webdunia

अपना इंदौर

सेंट्रल इंडिया और विशेषकर इंदौर में 1857 का महान विद्रोह भड़कने के तुरंत बाद व आगे के समय में महाराजा तुकोजीराव होलकर का व्यवहार विवादास्पद बना रहा। महाराजा ने प्रारंभ में क्रांतिकारियों का साथ दिया किंतु परिस्थितियों के बदलते ही उन्होंने अपने आपको ब्रिटिश हितों का संरक्षक प्रदर्शित करने का प्रयास भी किया। उन्होंने अपनी सेवाओं के बदले अंगरेज सरकार से कुछ भूखंड पुरस्कार स्वरूप दिए जाने की मांग की ताकि यह तथ्य स्थापित हो सके कि वे अंगरेजों के हितैषी रहे थे।
 
दूसरी ओर अंगरेज, 1857 की संकटकालीन परिस्थितियों में मौन साधे रहे, किंतु जैसे ही विद्रोह को दबाकर अपनी स्थिति सुदृढ़ करने में कामयाब हो गए, वैसे ही होलकर महाराजा के प्रति उनका रुख बदल गया। 'टेरिटोरियल रिवॉर्ड केस' के शीर्षक से महाराजा और ब्रिटिश सरकार के मध्य लंबी लिखा-पढ़ी चलती रही जिसके मूल अभिलेख राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली में हासिल हुए हैं। प्राप्त इन पत्रों से होलकर-ब्रिटिश संबंधों पर नई रोशनी पड़ी है। 1880 ई. तक यह पत्र व्यवहार चलता रहा तथापि किसी अंतिम निर्णय पर नहीं पहुंचा जा सका था।
 
यहां यह उल्लेखित किया जाना उपयुक्त होगा कि भारत में 1857 के विद्रोह दमन के पश्चात जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रशासनिक परिवर्तन हुआ, उसके अनुसार भारत का प्रशासन 'ईस्ट इंडिया कंपनी' से ले लिया गया था और भारतीय महाद्वीप का शासन प्रबंध ब्रिटिश सरकार ने ग्रहण कर लिया था। यहां की प्रशासनिक व्यवस्था का निर्धारण व नियंत्रण ब्रिटिश संसद व ब्रिटेन की महारानी के अधीन हो गया था। इंडिया ऑफिस लंदन से 'सेक्रेटरी ऑफ स्टेट्‌स फॉर इंडिया' द्वारा भारत सरकार को 22 जुलाई 1880 ई. को भेजे गए पत्र में लिखा गया है-
 
'टेरिटोरियल रिवॉर्ड के प्रति मेरी उदासीनता का कारण लॉर्ड कैनिंग की भाषा से स्पष्ट हो जाएगा, जो लॉर्ड कैनिंग ने मुझे पत्रों में लिख भेजी है। एक पत्र में कैनिंग लिखते हैं, 'महाराजा (होलकर) को किसी भी प्रकार का भूखंड पुरस्कारस्वरूप दिए जाने का मेरा कोई इरादा नहीं है। विद्रोह के दिन महाराजा का व्यवहार इस प्रकार का नहीं था जिसके लिए हमारा आदर हो या जिसके लिए हम कृतज्ञता प्रकट करें।'
 
यद्यपि, महाराजा ने विद्रोह के बाद महू स्थित फौज की सहायता की तथा मालवा के एजेंट को व्यवस्था कायम करने में जो सहयोग दिया, उसे देखते हुए उनके व्यवहार (1 जुलाई 1857 के) को अनदेखा किया जा सकता था फिर भी महाराजा के अनपेक्षित व्यवहार को देखते हुए भूखंड प्राप्ति का दावा उचित नहीं कहा जा सकता।'

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

नूपुर के समर्थन में प्रज्ञा, कहा- देवी-देवताओं का अपमान होगा तो 'सच' बताया जाएगा