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इन्द्रधनुषी त्योहार है होली....

मदनोत्सव और होली

Webdunia
- सुरेंद्र दुबे
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कालजयी होते हैं पर्व, सदियों के बाद भी उनकी चमक और खनक कायम रहती है। होली एक ऐसा ही इन्द्रधनुषी त्योहार है, जिसका रंग वक्त के कैनवास पर अब तक चटक बना हुआ है। दरअसल, आज जिसे हम होली के रूप में मनाने लगे हैं राजा-महाराजाओं के जमाने में वह मदनोत्सव बतौर आयोजित होने वाला भव्य-समारोह हुआ करता था।

मदनोत्सव आखिर कब से होली बन गया, यह शोध का विषय है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार सातवीं सदी तक संपूर्ण प्राचीन भारत में होली शब्द का नामोनिशान तक नहीं था। वस्तुतः जो भी था वह बसंतोत्सव या मदनोत्सव ही था।

मध्यकालीन युग के प्रारंभ होते ही संस्कृत भाषा अपना महत्व खोने लगी और भाषा के सरलीकरण के उन्हीं युगों में मदनोत्सव होली बन गया। शिव द्वारा कामदेव-दहन के प्रकरण को होलिका-दहन में बदल दिया गया।

यद्यपि प्रहलाद आख्यान तो बहुत प्राचीन है और होलिका जो बाद में पूतना बनी उसका प्रकरण भी ज्ञात था तथापि प्राचीन भारत में होली त्योहार का और उससे होलिका का प्रहलाद संबंध स्पष्ट नहीं था। संभवतः वैष्णव धर्म की लोकप्रियता के समय सातवीं- आठवीं सदी में इस संपूर्ण शैव-आख्यान यानी शिव द्वारा कामदेव-दहन को वैष्णव-जामा पहनाने के लिए नृसिंह या विष्णु-होलिका दहन के रूप में इस कथा का रूपांतरण कर दिया गया।

विद्या की देवी मां सरस्वती को समर्पित महापर्व बसंत पंचमी के उपरांत दस्तक देने वाला ऋतुराज से मदमाता मदनोत्सव ही अपने परिवर्तित रूप में आज रंगपर्व होली बनकर प्रचलित हो गया है। इस पर्व के प्रीतक देवता कामदेव के अनेक नाम हैं मसलन-मदन, मन्मथ, कन्दर्प, प्रद्युम्न, अनंग, मकरध्वज, रतिपति, पुष्पधन्वा, रति नायक आदि। कमोवेश ये ही यूनानी दंतकथा के 'क्यूपिड' हैं। ये ही बौद्ध परंपरा के 'मार' हैं।

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ये ही सिगमंड फ्रायड का संपूर्ण चिंतन हैं। ये ही हमारे चार पुरुषार्थों में से एक हैं, ये ही हमारी प्राणवायु हैं, हमारी मेधा-शक्ति हैं। उनकी आराधना का महापर्व मदनोत्सव यानी होली मैथुनी-सृष्टि की रचनाधर्मिता के प्रति अहोभाव का प्रतीक है। इस चराचर ब्रह्मांड में केवल दो प्रजातियां हैं- एक कामदेव और दूसरी रति।

आश्चर्य है कि प्रत्येक नर-नारी के अंतर्मन में हर समय कोलाहल मचाते रहने वाले, यौनाचार से परिप्लावित इस विश्व के अधिष्ठाता कामदेव स्वयं एकनिष्ठ, एक पत्नीव्रत और सदाचारी हैं। इसीलिए नमनीय हैं, वंदनीय हैं।

वाल्मीकि रामायण में सर्वप्रथम कामदेव की स्तुति में मदनोत्सव मनाए जाने का उल्लेख आया। जिसे भारत के प्राचीनतम और गौरवमयी त्योहारों में से एक माना गया। तब न होली थी और न होलिका, केवल यही बसंतोत्सव था। चैत्र की पूर्णिमा यानी मार्च-अप्रैल में यह पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाता था।

यह खुशियों की बहार का बेजोड़ समय होता है, जब शीतल मंद सुगंध पवन, हरियाली के भार से दबे पेड़, पीले सरसों से लहलहाते खेत, फूलों से लदे-फदे पौधे, सभी पशु-पक्षी, फूल-भंवरे, प्रकृति-ऋतु एक बारगी जवान हो उठते हैं। एक अजीब मादकता छा जाती है वातावरण में।

कालिदास ने अपने रघुवंश में इसे ऋतु-उत्सव कहा। बसंत का आगमन ही एक नशा है, उन्माद है, सम्मोहन है। सम्राट हर्षवर्धन ने अपने नाटक रत्नावली में मदनोत्सव का बड़ा ही नयनाभिराम वर्णन किया है- सातवीं सदी में धानेश्वर (हरियाणा) में यह मनाया जाता था। इसमें सभी नगरजन आयु, स्तर, वर्ण के भेदभाव भूलकर विशाल राजकीय उद्यान में एकत्र होते थे, जहां नृत्य, संगीत, वाद्य एक अवर्णनीय समां बांध देते थे। सम्राट राजभवन में हाथी पर सवार होकर आते थे और उद्यान में अपनी पट्ट महिषी व अन्य रानियों के साथ प्रवेश करते थे।

विविध वाद्यों का तुमुल घोष और रंगों की वर्षा मन मोह लेती थी। इसके बाद न कोई सम्राट रह जाता था, न महारानी, न सेनानायक। नारियां निहत्थे पुरुषों को पकड़-पकड़कर उन पर पिचकारियों से सुगंधित जलयुक्त रंग डालती थीं। पुरुष कृतकृत्य होते थे और केसर, गुलाल या अन्य सूखे रंगों की धूलि उन ललनाओं पर बिखेरते थे। यही वह अवसर था जब ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र की सीमारेखाएं एकदम विलीन हो जाती थीं और उन्हीं के साथ समाप्त हो जाते थे मनुष्य से मनुष्य को अलग करने वाले धन, पद, सम्मान के रिश्ते। सभी रंगमय हो जाते थे।

सम्राट हर्षवर्धन ने अपने दूसरे नाटक 'नागानंद' में भी मदनोत्सव का वर्णन किया है, जो रत्नावली जैसा ही है। हर्ष के राजकवि बाणभट्ट ने हर्षचरित में मदनोत्सव के समय विविध हास-परिहास का जिक्र किया है। दंडी ने अपने नाटक 'दशकुमारचरित' में मदन की पूजा के विधान का विधिवत उल्लेख किया है। इसके लिए अशोक वृक्ष को खूब सजाया जाता है।

कामदेव की पूजा में पुष्पों का विशेष महत्व है साथ ही गन्ना, हरिद्रा, चन्दन, इत्र, चावल, रेशम सहित उन वस्तुओं का अर्पण करना जो नर-नारी श्रृंगार-प्रसाधनों के लिए करते हैं। विशेष रूप से जिस रूप में कामदेव की दिन में पूजा की जाती, सधवा स्त्रियों से अपेक्षा थी कि रात्रि में अपने घर के एकांत में उसी तरह अपने पति की अभ्यर्थना करें, क्योंकि प्रत्येक पति एक कामदेव है, प्रत्येक पत्नी एक रति।

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