बंचारी का अनूठा होली उत्सव

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वसंत ऋतु की पराकाष्ठा, बृज की होली और सुहावने मौसम में नई फसल की आस, ये सब वातावरण में मिलकर एक अजीब-सा रस-रंग घोल देती हैं। केवल बृज में ऐसा होता हो, ऐसी बात नहीं है।

हरियाणा में भी होडल और पलवल उपमंडल के अंतर्गत बंचारी, औरंगाबाद सहित दर्जनों गांवों में होली उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है, जो नंदगांव और बरसाना गांव की होली से किसी भी तरह कम नहीं है।

होली का पर्व मस्ती, उल्लास और उन्माद का पर्व है। होडल के गांव बंचारी में पिछले 300 सालों से होली गायन, होली नृत्य और पिचकारियों से रंग की बौछारों के साथ-साथ बलदाऊ मंदिर में पूजा की एक परंपरा चली आ रही है।

बृज की तरह इस गांव में भी होली गायन पुरुषों और महिलाओं के बीच एक महीने तक चलता है यानी होली से 15 दिन पहले और 15 दिन बाद तक यह सिलसिला रात को भी चलता है। गांव में रात को नगाड़ों पर होली गायन होता है जिसे सुनने के लिए दूर-दूर से लोग पहुंचते हैं। होली के दिन कई हजार लोग दर्शक के रूप में गांव में जमा होते हैं।


बंचारी गांव में होली गायकों की अलग-अलग टोलियां सजती हैं। इन मंचों पर बैठे गायकों और साजिंदों की प्रस्तुति से कितने लोग दूसरे मंचों से चले आते हैं। यही उनकी लोकप्रियता का मापदंड समझा जाता है। 8 साल के बच्चों से लेकर 80 साल के बूढ़े तक मंच पर अपना रोल अदा करते हैं। हरेक के मंच पर होली गायन 'सुन टेर नीम के बारे' से आरंभ होता है जिसमें गांवों के उत्तर में स्थित नीम वाले मंदिर की आराधना की जाती है।

बंचारी गांव की खासियत यह है कि होली के अवसर पर गांव में आने वाले दर्शकों को उसी घर में खाना मिल जाएगा जिस घर की चौपाल पर वे जाकर बैठ जाएंगे। बाहर से आने वाले दर्शकों की मेहमानवाजी अपने रिश्तेदारों की तरह होती है। जब सारे इलाके में होली से अगले दिन होला होता है तो उससे अगले दिन होला, धुलेंडी या फाग खेला जा चुका होता है तो उससे अगले दिन बंचारी गांव में दोपहर के समय दो स्थानों पर रंगभरी पिचकारियों से फाग खेला जाता है।

यह दृश्य जीवन में कभी न भूलने वाला होता है। एक-एक गज की लंबी पीतल की पिचकारी को भरकर उसका लीवर जाँघ पर रखकर पिचकारी दोनों हाथों से नीचे की ओर खींच कर रंग भरे पानी को दूसरी पार्टी पर फैंका जाता है।


अनेक बार इंद्रधनुष प्रत्यक्ष रूप से वहां दिखाई देता है। बंचारी गांव में पूर्व से बारह और पश्चिमी से भी बारह गांवों में सौरोत बिरादरी के जाट अपने-अपने दलों के नगाड़ों के साथ गाते बजाते प्रवेश करते हैं तो सारा गांव नगाड़ों, तालों और ढोलक की थापों से गुंजायमान हो जाता है।

बाहर से आने वाले हुरियारों का स्वागत बंचारी गांव की बहुएं नाच-गाकर करती हैं। जब नाच गायन पूरा हो जाता है तो सब मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं। बंचारी गांव में एक दशक से लट्ठमार होली बंद हो गई है क्योंकि इसकी आड़ में बैर भाव बढ़ जाता था। अब केवल नाच-गायन ही होता है।

इस दौरान होली गायन में दिखाई देने वाले जोश में कहीं कोई कमी नहीं आई है। रंगभरी पिचकारियों को लेकर 1989 में हुई मारपीट में कई लोग गंभीर रूप से घायल हो गए थे। तब से रंगभरी होली खेलने में मजा कुछ कम हो गया है।


बंचारी गांव से आगे निकलकर कोसी कलां शहर के पास तीन प्रमुख गांव हैं जिनमें होली के अवसर पर हजारों दर्शक दिल्ली जैसे दूर-दराज क्षेत्रों से आते हैं।

यहां से पांच किलोमीटर की दूरी पर एक गांव हैं फालैन, जहां पर रात को होली दहन देखना जीवन में अभूतपूर्व क्षण होता है। फालैन में भी होली दहन पर जोश और उल्लास दिवाली से कम नहीं होता।

लोग घरों में सफेदी, रंग-रोगन, लीपा-पोती करते हैं और अपनी बैठक नोहरे पर आने वाले व्यक्ति को मेहमान समझकर खीर, पूरी, हलवा आदि बड़े प्यार से खिलाते हैं। रात को नौटंकी तथा अन्य मनोरंजक कार्यक्रम होते हैं।

कोसी के नजदीक नंदगांव जाने वाले रास्ते पर जाब गांव में लट्ठमार होली का दृश्य बड़ा सुहावना होता है। इस गांव में बठैन कलां गांव से हुरियारे आते हैं।

फाग से अगले दिन इस गांव में गांव के लोग ढपली, नगाड़ों, तालों, चिमटों आदि के साथ गाते-बजाते आगे-आगे चलते हैं और उनके पीछे जाब गांव के हुरियारे होते हैं। इनमें बड़े-बूढ़ों के लिए हुक्का आदि भी होता है। गांव की गलियों से गुजरते समय गांव में हुरियारों पर छतों पर बैठे लोग रंग-गुलाल फेंककर स्वागत करते हैं। ढलते सूरज के साथ ही होली का उल्लास भरा पर्व समाप्त हो जाता है ।


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