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होलिका दहन व पूजन

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फागुन शुक्ल अष्टमी से पूर्णिमा तक आठ दिन होलाष्टक मनाया जाता है। इसी के साथ होली उत्सव मनाने की शुरुआत होती है। होलिका दहन की तैयारी भी यहाँ से आरंभ हो जाती है। होलिका दहन व पूजन आदि निम्न बिंदुओं पर करना चाहिए-

होलाष्टक के पहले दिन किसी पेड़ की शाखा को काटकर उस पर रंग-बिरंगे कपड़े के टुकड़े बाँधे जाते हैं।

मोहल्ले, गाँव या नगर के प्रत्येक व्यक्ति को उस शाखा पर एक वस्त्र का टुकड़ा बाँधना होता है। पेड़ की शाखा जब वस्त्र के टुकड़ों से पूरी तरह ढँक जाती है, तब इसे किसी सार्वजनिक स्थान पर गाड़ दिया जाता है।

शाखा को इस तरह गाड़ा जाता है कि वह आधे से ज्यादा जमीन के ऊपर रहे। फिर इस शाखा के चारों ओर सभी समुदाय के व्यक्ति गोल घेरा बनाकर नाचते-गाते हुए घूमते हैं।

इस दौरान अर्थात घूमते-घूमते एक-दूसरे पर रंग-गुलाल, अबीर आदि डालकर प्रेम और मित्रता का वातावरण उत्पन्न किया जाता है।
होलाष्टक के आखिरी दिन यानी फागुन पूर्णिमा को मुख्य त्योहार होली मनाया जाता है।

मुख्य त्योहार यानी फागुन पूर्णिमा को अर्धरात्रि के बाद घास-फूस, लकड़ियों, कंडों तथा गोबर की बनाई हुई विशेष आकृतियों (गूलेरी) को सुखाकर एक स्थान पर ढेर लगाया जाता है। इसी ढेर को होलिका कहा जाता है।

इसके बाद मुहूर्त के अनुसार होलिका का पूजन किया जाता है।

अलग- अलग क्षेत्र व समाज की अलग-अलग पूजन विधियाँ होती हैं। अतः होलिका का पूजन अपनी पारंपरिक पूजा पद्धति के आधार पर ही करना चाहिए। आठ पूरियों से बनी अठावरी व होली के लिए बने मिष्ठान आदि से भी पूजा होती है। होलिका पूजन के समय निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिए :-

अहकूटा भयत्रस्तैः कृता त्वं होलि बालिशैः ।
अतस्वां पूजयिष्यामि भूति-भूति प्रदायिनीम्‌ ॥

घरों में गोबर की बनी गूलरी की मालाओं से निर्मित होली का पूजन भी इसी प्रकार होता है। कुछ स्थानों पर होली को दीवार पर चित्रित कर या होली का पाना चिपकाकर पूजा की जाती है। यह लोक परंपरा के अंतर्गत आता है।

पूजन के पश्चात होलिका का दहन किया जाता है। यह दहन सदैव उस समय करना चाहिए जब भद्रा लग्न न हो। ऐसी मान्यता है कि भद्रा लग्न में होलिका दहन करने से अशुभ परिणाम आते हैं, देश में विद्रोह, अराजकता आदि का माहौल पैदा होता है। इसी प्रकार चतुर्दशी, प्रतिपदा अथवा दिन में भी होलिका दहन करने का विधान नहीं है। दहन के दौरान गेहूँ की बाल को इसमें सेंकना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि होलिका दहन के समय बाली सेंककर घर में फैलाने से धन-धान्य में वृद्धि होती है। दूसरी ओर यह त्योहार नई फसल के उल्लास में भी मनाया जाता है।

होलिका दहन के पश्चात उसकी जो राख निकलती है, जिसे होली-भस्म कहा जाता है, उसे शरीर पर लगाना चाहिए।

राख लगाते समय निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिए :-

वंदितासि सुरेन्द्रेण ब्रम्हणा शंकरेण च ।
अतस्त्वं पाहि माँ देवी! भूति भूतिप्रदा भव ॥

ऐसी मान्यता है कि जली हुई होली की गर्म राख घर में समृद्धि लाती है। साथ ही ऐसा करने से घर में शांति और प्रेम का वातावरण निर्मित होता है।

नववधू को होलिका दहन की जगह से दूर रहना चाहिए। विवाह के पश्चात नववधू को होली के पहले त्योहार पर सास के साथ रहना अपशकुन माना जाता है और इसके पीछे मान्यता यह है कि होलिका (दहन) मृत संवत्सर की प्रतीक है। अतः नवविवाहिता को मृत को जलते हुए देखना अशुभ है।
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