कान फिल्म फेस्टिवल का उभरता भारतीय चेहरा पायल कपाड़िया

प्रज्ञा मिश्रा
कान फिल्म फेस्टिवल से प्रज्ञा मिश्रा

दोपहर डेढ़ बजे का वक़्त। कान शहर के क्रोसेट पर खूब भीड़ लगी हुई थी क्योंकि शायद विल स्मिथ बाहर आने वाले थे। तभी एक हिंदुस्तानी चेहरे ने आकर हेलो कहा और बताया कि वो यहां शॉर्ट फिल्म कॉर्नर में अपनी फिल्म लेकर आए हैं और बहुत ही मनुहार से उनकी फिल्म की स्क्रीनिंग में बुलाया। उस समय तो कहना ही पड़ा कि आज एक के पीछे एक लगातार 4 फिल्में हैं और मुमकिन नहीं होगा लेकिन यह ख्याल तब से लगातार चल रहा है कि आखिर एक 12-13 मिनट की फिल्म को बनाने और फिर उसको लोगों को दिखाने के लिए कितनी मेहनत की जरूरत है। सुना ही था कि अनुराग कश्यप ने शुरूआती दौर में 2-2 महीने पेरिस में रह कर अपनी फिल्में लोगों को दिखाई। 
 
क्या यह बाज़ार का असर ही नहीं है ? वरना फिल्म तो फिल्म है, अगर अच्छी फिल्म है तो उसकी तारीफ़ और खबर दोनों ही फैलना चाहिए। 
 
इस साल भारत की तरफ से FTII स्टूडेंट पायल कपाड़िया की 13 मिनट की फिल्म है। आफ्टरनून क्लाउड्स...
 
'आफ्टरनून क्लाउड्स' में काकी विधवा हैं और अपनी नेपाली नौकरानी के साथ रहती हैं, की एक दोपहर की कहानी है। 
 
FTII ने पहली बार किसी स्टूडेंट की फिल्म को फेस्टिवल में भेजा है। पायल कपाड़िया अभी तीसरे साल की स्टूडेंट हैं, और इससे पहले 'लास्ट मैंगो बिफोर मॉनसून' नाम की फिल्म बना चुकी हैं जिसे 2015 में कई अवॉर्ड भी मिल चुके हैं। 
 
पायल बताती हैं कि जब वह पॉलिटेक्निक कॉलेज में पढ़ती थीं तब उन्हें मुंबई फिल्म फेस्टिवल जाने का मौका मिला और वहां पर जो फिल्में देखने को मिली उनसे फिल्मों में दिलचस्पी बहुत बढ़ी। और FTII में दाखिला लेने के लिए ग्रेजुएट होना जरूरी है इसीलिए पहले सेंट ज़ेवियर कॉलेज से इकोनॉमिक्स में डिग्री ली फिर FTII में एडमिशन मिला।  
 
पायल अपने इंस्टिट्यूट के बारे में खुल कर बात नहीं करती लेकिन यह जरूर कहती हैं वहां हमें कला को देखने और सीखने के लिए बहुत कुछ मिला। इतना ही नहीं FTII ने फिल्म को बनाने में भी पूरी मदद की। 
 
पायल की मां खुद पेंटर हैं और पायल की फिल्म में वह कला का असर दिखाई देता है। वह कहती हैं मेरा मकसद है मैं फिल्मों में पेंटिंग की एप्रोच बनाए  रखूं। करीब पांच हजार शॉर्ट फिल्में इस साल कान फिल्म फेस्टिवल को मिली और पायल की फिल्म अवॉर्ड की दावेदार श्रेणी में रखी गई। यही अपने आप में कामयाबी है। 
 
एक तरफ पायल की फिल्म है जो भारत का नाम इस साल के फेस्टिवल में जिलाये हुए है। और दूसरी ओर पहलाज निहलानी हैं जो इस बात से खफा हैं कि फिल्मकार बिना सेंसर बोर्ड के सर्टिफिकेट के फिल्मों को फेस्टिवल्स में ले जाते हैं। उनका कहना है कि फिल्म फेस्टिवल्स में भले ही बिना कांट छांट की फिल्म ही पसंद की जाती है लेकिन यह भारत है और यहां अब ऐसा नहीं चलेगा। अगर भारत की फिल्म किसी भी फेस्टिवल किसी भी प्लेटफॉर्म पर दिखाई जाएगी तो उसे सेंसर का सर्टिफिकेट लेना जरूरी होगा। इसका मतलब है जो बची खुची उम्मीदें थीं भारतीय फिल्मों से वह भी जाती रहेगी। क्योंकि क्या हमारा सेंसर बोर्ड लिपस्टिक अंडर माय बुरखा को फिल्म फेस्टिवल में जाने देगा? 
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