आजादी के 61 वर्ष बाद खेल

आजाद भारत के खेल शूरवीर

सीमान्त सुवीर
NDND
भारत ने आजादी मिलने के बाद जिस तरह शिक्षा, तकनीकी, उद्योग, अंतरिक्ष आदि क्षेत्रों में प्रगति के नए सोपान स्थापित किए हैं, उसी तर्ज पर खेल के मैदान पर भी भारतीय खिलाड़ियों ने पूरी दुनिया में अपनी श्रेष्ठता साबित की है। भारत की इस खेल यात्रा का अतीत बेहद गौरवशाली रहा है और इसी अतीत से प्रेरणा लेकर वर्तमान ने खुद को सजाया-सँवारा है।

बेशक 1947 के बाद पहली बार 2008 के बीजिंग ओलिम्पिक खेलों में भारतीय हॉकी नजर नहीं आई, लेकिन उससे पहले के सालों में भारतीय खिलाड़ियों ने शानदार प्रदर्शन किया है। आजादी मिलने के बाद पूरे देश में जोश-जज्बा था। पहली बार भारतीय हॉकी टीम ने स्वतंत्र देश के रूप में 1948 के लंदन ओलिम्पिक में शिरकत की। आज की पीढ़ी यह जानकर ताज्जुब करेगी कि इस टीम का नेतृत्व इंदौर के समीप महू के किशनलाल ने किया था।

जिन अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बनाकर रखा था, उसी अंग्रेज टीम को उसकी ही धरती पर भारत ने हराकर स्वर्ण पदक हासिल किया था। हॉकी की यह ओलिम्पिक स्वर्णिम सफलता 1952 (हेलसिंकी) और 1956 (हेलसिंकी) तक कायम रही। 1960 रोम ओलिम्पिक में भारत ने काँस्य पदक जीता, जबकि 1964 के टोकियो ओलिम्पिक में पुन: स्वर्ण पदक अर्जित किया।

1975 में भारत विश्व कप हॉकी के फाइनल में पाकिस्तान को 2-1 से हराकर विश्व विजेता बना। 1980 के मास्को ओलिम्पिक के स्वर्ण पदक के बाद भारतीय हॉकी रसातल में जाती रही।

शतरंज दिमागी कसरत का सबसे बेहतरीन साधन है और इस खेल का जन्मदाता भारत हमेशा पिछड़ा हुआ था। रूसी शतरंज खिलाड़ी गैरी कास्परोव और अनातोली कारपोव के किले में किसी युवा शतरंज खिलाड़ी ने सेंध लगाई तो वह खिलाड़ी विश्वनाथन आनंद के सिवाय दूसरा और कोई नहीं था।

तीन बार विश्व चैम्पियन बनने वाले विश्वनाथन आनंद आज भी शतरंज की बिसात पर भारत के लिए नए मुकाम हासिल करने में जुटे हैं। विश्वनाथन की सफलता ने भारत के कई युवा खिलाड़ियों को प्रेरित किया और कोनेरू हम्पी, हरिकृष्णा, परिमार्जन नेगी जैसी प्रतिभाएँ सामने आईं।

बिलियर्ड्स-स्नूकर में माइकल फरेरा पहली बार विश्व चैम्पियन बने और फिर तो भारत के विश्व चैम्पियनों की कतार लग गई। गीत सेठी, यासिन मर्चेन्ट ने भारत का नाम रोशन किया। पुरुष बैडमिंटन में भारत ने दो सितारे दिए। प्रकाश पादुकोण और पुलेला गोपीचंद ने ऑल इंग्लैंड के खिताब जीते और भारत का नाम बैडमिंटन के आकाश पर चमकाया।

फुटबॉल में भारत की दो उल्लेखनीय सफलता अंतरराष्ट्रीय नेहरू स्वर्ण कप फुटबॉल के साथ-साथ एफसी कप में ‍विजेता बनने की रही और दोनों ही प्रसंगों पर भारतीय टीम की कप्तानी बाइचुंग भूटिया जैसे सितारे ने की।


1983 में कपिल देव की नेतृत्व वाली भारतीय क्रिकेट टीम ने लॉर्ड्स के ऐतिहासिक मैदान पर वेस्टइंडीज को हराकर विश्व कप जीता और कैरेबियाई टीम को जीत की हैट्रिक लगाने से वंचित कर दिया। कपिल की सेना ने विश्व कप जीतकर भारतीय खेल जगत में 'क्रिकेट क्रांति' का सूत्रपात किया। विश्व कप के बाद ही क्रिकेट का खेल स्टेडियम से गुजरते हुए गली-गली तक पहुँच गया।

यही नहीं, इसने रसोई तक अपनी जगह बना ली। महिलाएँ तक खेल की बारीकियाँ सीख गईं। उन्हें अपने बच्चों में सचिन तेंडुलकर की छवि दिखाई देने लगी।

1987 में भारत में जब रिलायंस विश्व कप आयोजित किया गया, तब जगमोहन डालमिया नाम का एक ऐसा कुशल प्रशासक सामने आया, जिसने इसका व्यवसायीकरण कर क्रिकेट में पैसों की बारिश कर दी। क्रिकेट को मालामाल बनाने वाले का जब भी जिक्र किया जाएगा, उसमें डालमिया का नाम अव्वल रखा जाएगा।

क्रिकेट में भारत ने 2003 में दक्षिण अफ्रीका में खेले गए विश्व कप में भारत उपविजेता रहा जबकि 2007 में मसाला क्रिकेट कहे जाने वाले ट्वेंटी-20 विश्व कप में धोनी के धुरंधर विश्व विजेता बने। इसी की कामयाबी ने इंडियन प्रीमियर लीग के दरवाजे खोले और इसकी असीम कामयाबी ने क्रिकेटरों को करोड़ों में खेलने के मौके दे दिए।

भारत की अंडर-19 की टीम 1999 में मोहम्मद कैफ और 2008 में विराट कोहली की अगुआई में विश्व विजेता बनी। आजाद भारत ने अजीत वाडेकर, सुनील गावसकर, कपिल देव, मोहिन्दर अमरनाथ, सैयद किरमानी, सचिन तेंडुलकर, सौरव गांगुली, अनिल कुंबले, राहुल द्रविड़ जैसे धुरंधर खिलाड़ी दिए।

एथलेटिक्स की दुनिया में भारत में मिल्खासिंह और पीटी उषा, अंजू बॉबी जॉर्ज जैसी एथलीट भी जन्मीं। मिल्खासिंह ने 1960 के रोम ओलिम्पिक खेलों में 400 मीटर दौड़ नंगे पैर दौड़ी और 45.61 सेकंड के साथ विश्व कीर्तिमान जरूर बनाया, लेकिन वे चौथे स्थान पर रहे।

भारतीय टेनिस रामनाथन कृष्णन, रमेश कृष्णन, विजय अमृतराज, आनंद अमृतराज के बगैर अधूरा ही माना जाएगा। इन दिग्गजों ने देश में टेनिस की मजबूत नींव रखी, जिस पर बाद में महेश भूपति और लिएंडर पेस ने महल खड़ा किया। ये सभी टेनिस स्टार भारत को डेविस कप में विशिष्ट पहचान दिलाने में कामयाब रहे।

महिला टेनिस में सानिया मिर्जा देश की रोल मॉडल बनीं और उनका जलवा आज भी जारी है। नारायण कार्तिकेयन ऐसे पहले कार रेसर बने, जो फार्मूला वन के ट्रैक पर तूफानी रफ्तार से अपनी कार दौड़ाने में कामयाब हुए। उन्हीं के पद चिह्नों पर आज करण चंडोक चल रहे हैं।

1984 के लॉस एंजिल्स ओलिम्पिक में उड़नपरी पीटी उषा ने 400 मीटर बाधा दौड़ में 52.42 सेकंड का समय निकाला, लेकिन वे भी सेकंड के 100वें हिस्से काँस्य पदक चूक गई। भारत के 60 साल के एथलेटिक्स इतिहास में अंजू बॉबी जॉर्ज 2003 में पेरिस में आयोजित विश्व कप एथलेटिक्स में 6.70 मीटर की छलाँग के साथ पहली बार कांस्य पदक जीतने वाली एथलीट बनीं।

एथेंस में जब सेना के राज्यवर्द्धन सिंह राठौड़ ने डबल ट्रैप शूटिंग में रजत पदक जीता तो ओलिम्पिक खेलों में भारत का खाता खुला और इसी एकमात्र पदक के सहारे भारत पदक ता‍लिका में 66वाँ स्थान पाने में सफल रहा था, वरना भारतीय कुनबा खाली हाथ ही लौटता।

2008 के बीजिंग ओलिम्पिक खेलों में पुरुषों की 10 मीटर एयर रायफल में स्वर्ण पदक जीतकर 'सदी के सितारा' खिलाड़ी बनने का गौरव चंडीगढ़ के अभिनव बिंद्रा ने प्राप्त किया। आधुनिक ओलिम्पिक खेलों के 108 सालों के इतिहास में यह पहला प्रसंग था, जब किसी भारतीय ने व्यक्तिगत स्वर्ण पदक से अपना गला सजाया था।

इसमें कोई दो मत नहीं कि 1947 से 2008 तक भारत ने खेलों की दुनिया में नाम रोशन कर फख्र के साथ तिरंगा लहराया है, लेकिन देश के राजनेता खेलों को प्राथमिकता की सूची में रख दें तो भारतीय खिलाड़ी सफलता की नई बुलंदियाँ छू सकते हैं। उनमें हौसलों की नई उड़ान भरने का जोश पैदा हो सकता है। ख्वाहिशों के नए 'पर' उग सकते हैं। खेल ही एकमात्र ऐसा जरिया है जो दिलों को करीब लाता है और खेल भावना के सूत्र को सीखकर इंसान हर क्षेत्र में ऊँची उड़ान भर सकता है।
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