आजादी के 61 वर्ष बाद हम

संदीप तिवारी
वर्ष 1947 में आजादी मिलने के बाद देश ने लोकतांत्रिक व्यवस्‍था को अपनाया और भारत को एक लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने की शुरुआत की गई थी। स्वतंत्रता के 61 वर्ष बाद ऐसा लगता है कि देश ने लोकतांत्रिक मूल्यों को आत्मसात करने के साथ-साथ कुछेक ऐसी प्रवृत्तियों को भी जन्म दिया है जो कि देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए बहुत बड़ा खतरा साबित हो रही हैं।

देश के लगभग हर हिस्से में अलोकतांत्रिक व्यवहार और हिंसा का बोलबाला है। मजबूत लोकतांत्रिक विशेषताओं के साथ हमारी सफलता पर हम गर्व कर सकते है ं, लेकिन इसके साथ विरोधाभास यह भी है कि इस व्यवस्था के चलते ‍देश में अलगाववादी प्रवृत्तियाँ बढ़ी हैं और देश के सामने विभाजन के खतरे दिन-ब-दिन बढ़ते जा रहे हैं।

लोकतंत्र देश में मजबूत हो रहा है, लेकिन इसके साथ ही असमानता, अशिक्षा, गरीबी, मुखमरी और हिंसा भी बढ़ रही है। आर्थिक और सामाजिक ढ़ाँचा चरमराने लगा है और लोकतांत्रिक व्यवस्था में अनिश्चितताएँ बढ़ रही हैं।

हमने स्वतंत्रता के बाद इमरजेंसी जैसा लोकतांत्रिक संकट देखा तो मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किए जाने जैसा सामाजिक चेतना का विस्तार भी। देश में दो बार परमाणु परीक्षण किए गए तो बाबरी मस्जिद का विध्वंस और उसके बाद देश भर में फैली हिंसा ने भी हमें यह सोचने पर विवश किया कि क्या साम्प्रदायिकता के आधार पर देश के विभाजन के बाद भी हमने इससे कोई सबक लिया?

गुजरात में साम्प्रदायिक हिंसा को जो दंश देश झेल चुका है वह अभी भी इस रफ्तार से बढ़ रहा है कि राजनीतिज्ञों के उकसावे के कारण जम्मू-कश्मीर जैसा सीमावर्ती राज्य भी दो अलग-अलग हिस्सों में बँट चुका है।

सेना के बल पर हम इसे एक बनाए रखने में सक्षम हैं लेकिन घाटी के म‍ु्स्ल‍िमों का मुजफ्फराबाद की ओर कूच करना यह बताने के लिए पर्याप्त है कि अलगाववाद इस हद तक बढ़ चुका है कि देश के विभाजन के लिए पाकिस्तान की आईएसआई जैसी बदनाम एजेंसी को कोई खास कोशिश करने की जरूरत नहीं है क्योंकि देश बाँटने के लिए हमारे अपने राजनीतिज्ञ ही काफी हैं।

घाटी में अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने और फिर वापस लेने को लेकर समूचे देश में बंद होता है लेकिन घाटी से लाखों कश्मीरी पंडित पलायन करते हैं तो इस पर कोई बंद नहीं होता और न ही संसद, राष्‍ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कोई आवाज उठाई जाती है? क्योंकि देश के सभी छोटे बड़े राजनीतिक अपनी सुविधा, त‍ुष्ट‍िकरण और वोटों की राजनीति से उपर उठ ही नहीं पाते हैं।

देश ने 2002 में गुजरात में भयंकर साम्प्रदायिक हिंसा और मुस्लिम समुदाय के सदस्यों की ह्त्याओं का दौर देख ा, लेकिन अल्पसंख्‍यकों के खिलाफ होने वाले अपराधों पर कोई लगाम नहीं लगी? यही बात राजनीतिक, जाति और आर्थिक कारणों से लगातार बढ़ती हिंसा पर भी लागू होती है। इनके रोकथाम का कोई उपाय भी नजर नहीं आता और कोई ऐसा सेफ्टी वाल्व भी नहीं दिखता जोकि इन प्रवृ्त्त‍ियों पर कारगार तरीके से नियंत्रण कर सके।

वैसे मोटे तौर स्वतंत्रता के बाद भारत में जो प्रमुख प्रवृत्तियाँ देखी जा सकती हैं वे हैं भारत में तेजी से बढ़ती साम्प्रदायिकता। हिंदुत्व के नाम पर बढ़ रही ताकतें चुनावों तक ही सीमित नहीं हैं वरन् ये देश के सामाजिक और आर्थिक जीवन में भी बाधाएँ खड़ी कर रही हैं।

एक और महत्वपूर्ण और सकारात्मक परिवर्तन यह देखने में आ रहा है कि समाज के अब तक अधिकारों से वंचित तबके अपने अधिकारों के लिए न केवल सक्रिय हो रहे है ं, वरन उनकी सत्ता में भागीदारी भी बढ़ रही है।

देश के मुस्लिम समाज में न केवल अपने अधिकारों को लेकर जागरूकता बढ़ रही ह ै, वरन वे अपने ‍नेताओं के खिलाफ भी उठ खड़े होने लगे हैं। उनमें अपने अधिकारों को लेकर संघर्ष करने की प्रवृत्ति पनप रही है। उनमें शिक्षा और रोजगार को लेकर प्रतियोगिता की भावना बढ़ रही है।

राजनीतिक परिदृश्य पर यह भी देखा जाने लगा है कि भारतीय राजनीति का क्षेत्रीयकरण हो रहा है और राजनीतिक दलों के लिए क्षेत्रीय मुद्‍दे महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। राष्ट्रीय और बड़ी राजनीतिक पार्टियों के वर्चस्व में कमी होती जा रही है तो क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण और निर्णायक होते जा रहे हैं। वे अपने से सभी बड़े दलों को सभी महत्वपूर्ण अवसरों पर ब्लैकमेल करने में सक्षम पा रहे हैं।

देश में भाषा के आधार पर राज्यों का गठन किया गया लेकिन भाषाई झगड़े राज्यों के बीच अशाँति और हिंसा का कारण बनते जा रहे हैं। उर्दू या बहुत कम बोली जाने वाली भाषाओं को इसका खामियाजा भी उठाना पड़ा है।

धीरे-धीरे इनकी ‍स्थितियों में बदलाव की उम्मीद भी की जा सकती है क्योंकि इस मामले में उत्तर प्रदेश में उर्दू को लेकर राजनीतिक दलों के बीच अपने को हितैषी सिद्ध करने की जंग भी जारी है और समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी, दोनों को ही मुस्लिमों और उर्दू की चिंता में लगी रहती हैं।

देश में स्वतंत्रता के बाद से ही भ्रष्टाचार का जो घुन लगा था अब वह ऑक्टोपस जैसा शक्तिशाली हो गया है और इसने देश की समूची राजनीतिक व्यवस्‍था को अपनी जकड़ में लिया है। शुरू में यह रोग कांग्रेस पार्टी में लगा था लेकिन यह अमरबेल इतनी ज्यादा फैल गई है कि संसद के भीतर तक भ्रष्टाचार पहुँच चुका है।

वंशवाद की जो बीमारी कांग्रेस से शुरू हुई वह आज छोटे-छोटे तक दलों तक फैल गई है। आज ऐसे क्षेत्रीय दलों की कमी नहीं है, जिसका नेता अपने दलों को अपनी जेब में लेकर चलते हैं।

भ्रष्टाचार का जोर इतना अधिक हो गया है कि अब तक देश में कितने बड़े और कितनी बड़ी संख्‍या में घोटाले हुए हैं, उनकी गिनती करना भी संभव नहीं है। पर आश्चर्य की बात तो यह है कि इन घोटालों में आज तक किसी भी बड़े नेता को सजा नहीं हुई। बड़ी संख्‍या में जाँच आयोग ‍बैठाए गए।

जाँच रिर्पोटें आईं लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा। अब तो स्थिति यह है कि भ्रष्टाचार और घोटालों को भी सामाजिक मान्यता भी मिल गई है और इस कारण से किसी भी नेता को अब शर्मिंदा अनुभव करने की भी जरूरत नहीं रही है।

देश में अब तो बसपा जैसे बहुत से दल और मायावती जैसे नेता हैं जोकि खुद को नेता ही नहीं चुनते वरन् अपने को प्रधानमंत्री पद का सुयोग्य दावेदार घोषित करने में तनिक भी शर्म महसूस नहीं करते।

ऐसी स्थिति में हम अपनी आजादी की इस राजनीतिक यात्रा को क्या नाम दे सकते हैं फिर भी हम यही सोचकर अपने को तसल्ली दे सकते हैं कि अभी भी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है और भविष्य में ऐसा युवा नेतृत्व सामने जरूर आएगा जो कि देश को इन कमियों से छुटकारा दिलाने में समर्थ होगा।

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