स्वराज्य की मेरी धारणा के बारे में किसी को कोई भ्रम न रहे। वह है बाहरी नियंत्रण से पूर्ण स्वाधीनता और पूर्ण आर्थिक स्वाधीनता।
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इस प्रकार, एक छोर पर है राजनीतिक स्वाधीनता, और दूसरे पर आर्थिक। इसके दो छोर और भी हैं जिनमें से एक छोर नैतिक व सामाजिक है और उसी का दूसरा छोर है धर्म- इस शब्द के उत्कृष्टतम अर्थ में। इसमें हिन्दुत्व, इस्लाम, ईसाई मजहब आदि सभी का समावेश है, पर यह उन सबसे ऊँचा है।
आप इसे सत्य के नाम से भी पहचान सकते हैं : ईष्टसिद्धि के लिए अपनाई जाने वाली सचाई नहीं, बल्कि जीवंत सत्य जो सर्वव्यापी, अविनाशी और अपरिवर्तनीय है। नैतिक और सामाजिक उत्थान का आशय व्यक्त करने वाला हमारा शब्द तो अहिंसा है ही। हम इसे स्वराज्य का चतुष्कोण कह सकते हैं जिसका एक भी कोना ठीक न रहने से वह बिगड़ जाएगा।
कांग्रेस की भाषा में कहें तो हम यह राजनीतिक और आर्थिक स्वाधीनता तब तक नहीं पा सकते जब तक कि सत्य और अहिंसा में, या अधिक स्पष्ट भाषा में कहा जाए तो ईश्वर में, और फलस्वरूप नैतिक व सामाजिक उत्थान में भी, हमारी हार्दिक आस्था न हो।
राजनीतिक स्वाधीनता से मेरा आशय यह नहीं है कि हम ब्रिटिश हाउस ऑव कॉमन्स की ही कोरी नकल कर लें, या सोवियत रूस के शासन की, या इटली के फासिस्ट अथवा जर्मनी के नाजी राज की। उनकी शासन-पद्धतियाँ उनकी अपनी ही विशिष्टता के अनुरूप हैं। हमारी शासन-पद्धति हमारी ही विशिष्टता के अनुरूप होगी। पर वह क्या होगी, यह बता सकना मेरी सामर्थ्य के बाहर है। मैंने इसका वर्णन रामराज के रूप में किया है अर्थात आम जनता की प्रभुसत्ता, जिसका आधार विशुद्ध रूप से नैतिक ही हो। कांग्रेस के नागपुर और बंबई वाले विधान, जिनका मुख्य दायित्व मुझी पर है, इस प्रकार के स्वराज्य को प्राप्त करने के ही प्रयास हैं।
अब आर्थिक स्वाधीनता को लें। यह आधुनिक या पाश्चात्य किस्म के औद्योगिकीकरण की उपज नहीं है। मेरे लिए तो भारतीय आर्थिक स्वाधीनता का अर्थ हर व्यक्ति का आर्थिक उत्थान है- हर पुरुष और स्त्री का और उसके अपने ही जागरूक प्रयत्नों द्वारा। इस पद्धति के अंतर्गत हर पुरुष और स्त्री के लिए पर्याप्त वस्त्र उपलब्ध रहेंगे सिर्फ कमर में लपेटने भर के लिए कपड़े का टुकड़ा नहीं बल्कि पहनने के जरूरी कपड़ों से जो कुछ समझा जाता है वह सब- और पर्याप्त खुराक, जिसमें दूध और मक्खन भी शामिल होंगे, जो आज करोड़ों को नसीब नहीं होते।
इससे समाजवाद की बात आ जाती है। सच्चा समाजवाद तो हमें अपने पुरखों से मिलता आया है जिन्होंने हमें सीख दी थी : 'सभी भूमि गोपाल की है, तब फिर सीमा वाली रेखा कहाँ है? मनुष्य ने ही वह रेखा खींची है और इसलिए वह उसे मिटा भी सकता है।' गोपाल का शाब्दिक अर्थ है गायों को पालने वाला; उसका अर्थ ईश्वर भी है। आधुनिक भाषा में उसका मतलब है राज्य अर्थात जनता। आज भूमि पर जनता का अधिकार नहीं है इसमें संदेह नहीं। पर इसके लिए उस सीख को तो दोष दिया नहीं जा सकता। दोष हमारे अंदर है कि हम उस सीख पर चल नहीं सके।
मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस दिशा में हम किसी भी दूसरे देश जैसे बड़े कदम उठा सकते हैं : यहाँ तक कि सोवियत रूस जैसे भी और सो भी बिना हिंंसा का आश्रय लिए ही। अपने संपूर्ण निहितार्थ में, चरखा ही, हिंसात्मक ढंग से सत्ता छीनने के तरीके का सबसे अधिक प्रभावशाली विकल्प है। जमीन और सारी ही संपत्ति उसकी है, जो उसका इस्तेमाल करे। दुर्भाग्यवश, श्रमिकों को इस सीधी-सादी बात का या तो पता नहीं है, और या उन्हें इस संबंध में अँधेरे में रखा ही गया है।
आर्थिक समानता के लिए काम करने का मतलब है पूँजी और श्रम के बीच के शाश्वत संघर्ष का अंत करना। इसका मतलब जहाँ एक ओर यह है कि जिन थोड़े-से अमीरों के हाथ में राष्ट्र की संपदा का कहीं बड़ा अंश केंद्रीभूत है, उनके उतने ऊँचे स्तर को घटाकर नीचे लाया जाए, वहीं दूसरी ओर यह कि अध-भूखे और नंगे रहने वाले करोड़ों का स्तर ऊँचा किया जाए। अमीरों और करोड़ों भूखे लोगों के बीच की यह चौड़ी खाई जब तक कायम रही आती है तब तक तो इसमें कोई संदेह ही नहीं कि अहिंसात्मक पद्धति वाला शासन कायम हो ही नहीं सकता।
स्वतंत्र भारत में जहाँ कि गरीबों के हाथ में उतनी ही शक्ति होगी जितनी देश के बड़े-से-बड़े अमीरों के हाथ में, वैसी विषमता तो एक दिन के लिए भी कायम नहीं रह सकती जैसी कि नई दिल्ली के महलों और यहीं नजदीक की उन सड़ी-गली झोपड़ियों के बीच पाई जाती है जिनमें मजदूर वर्ग के गरीब लोग रहते हैं। हिंसात्मक और खूनी क्रांति एक दिन होकर ही रहेगी अगर अमीर लोग अपनी संपत्ति और शक्ति का स्वेच्छापूर्वक ही त्याग नहीं करते और सबों की भलाई के लिए उसमें हिस्सा नहीं बँटाते।