भारत में समृद्धि फैलेगी, खुशहाली नहीं!

Webdunia
- गुरचरन दास
स्वतंत्रता की 61वीं जयंती मनाते हुए हम इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि धीरे-धीरे देश में समृद्धि फैलती जा रही है। इस बात के बावजूद कि हमारी अर्थव्यवस्था पाँच साल में पहली बार मंदी की शिकार हुई है, तथ्य तो यह है कि पिछले पाँच वर्षों में उच्च वृद्धि दर तथा 1991 से लगातार बढ़ती वृद्धि दर के चलते हमारी अर्थव्यवस्था ने किसी विमान की तरह उड़ान भर दी है। जनसंख्या वृद्धि दर घटी है और गत 25 वर्षों में 20 करोड़ से अधिक भारतीय गरीबी रेखा से ऊपर आए हैं।

उल्लेखनीय बात यह है कि राज्य की सहायता से ऊपर उठने के बजाय
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भारत कई मायनों में राज्य की उपस्थिति के बावजूद ऊपर उठने में सफल रहा है। भारत की सफलता की गौरव-गाथा के केंद्र में और कोई नहीं, उद्यमी ही है। आज हमारे यहाँ अत्यधिक प्रतिस्पर्धात्मक निजी कंपनियाँ हैं, एक तगड़ा शेयर बाजार है और एक आधुनिक, अनुशासित वित्तीय क्षेत्र है।

1991 से भारतीय राज्य धीरे-धीरे उद्योग-व्यापार के क्षेत्र से हट रहा हैः स्वेच्छा से नहीं, बल्कि आर्थिक सुधार लागू करने को विवश होकर। उसने व्यापार अवरोधों और कर की दरों को घटाना शुरू किया है, राज्य के एकाधिकार तोड़ने लगा है, उद्योगों के पाँवों में पड़ी बेड़ियाँ तोड़ने लगा है, प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहित करने लगा है और शेष विश्व के लिए अपने दरवाजे खोलने लगा है। गति धीमी जरूर रही है लेकिन सुधारों का कुल जोड़ प्रभावी हो चला है। इनकी बदौलत भारतीय अर्थव्यवस्था चीन के बाद विश्व की दूसरी सबसे तेज गति से बढ़ रही अर्थव्यवस्था बन गई है।

भारतीय अर्थव्यवस्था अब 'ऑटोपायलट' पर है और कोई ताकत उसे तेजी से आगे बढ़ने से रोक नहीं सकती। वर्तमान रुझानों को देखते हुए वह दिन दूर नहीं, जब हम समृद्धि के ऐसे स्तर तक पहुँच जाएँगे, जहाँ इतिहास में पहली बार भारतीय गरीबी से संघर्ष को पीछे छोड़कर एक ऐसे युग में प्रवेश करेंगे, जहाँ बहुसंख्य लोग आरामदायक जीवन जी रहे होंगे। यह देश के सभी भागों में एक जैसी गति से नहीं होगा। बिहार, पूर्वी उत्तरप्रदेश और उड़ीसा शेष राष्ट्र से 10 से 15 साल पिछड़ेंगे, लेकिन अंततः बिहार भी समृद्धि की ओर बढ़ेगा।

यदि हमारी अर्थव्यवस्था अगले दो से तीन दशकों तक इसी गति से बढ़ती रही, तो भारत का काफी बड़ा हिस्सा मध्यम वर्ग में होगा। उस समय गरीबी मिट तो नहीं जाएगी लेकिन वहनीय स्तर पर आ जाएगी। देश की राजनीति में भी बदलाव आएगा। मध्यम वर्ग को अहसास होगा कि अब उसके वोट भी उतने ही मायने रखते हैं, जितने पहले गरीबों के रखते थे। वे बड़ी संख्या में वोट देने जाएँगे और अच्छे स्कूल, साफ-सपाट सड़कें, कारगर स्वास्थ्य केंद्र आदि की माँग करेंगे। नेताओं को इन माँगों की ओर ध्यान देना पड़ेगा। चुनावों में धर्म और जाति की भूमिका कम हो जाएगी।

यह तो हुई अच्छी खबर। बुरी खबर यह है कि भारत में फैल रही समृद्धि अत्यधिक शर्मनाक प्रशासन के समानांतर चल रही है। बड़ा अजीब नजारा है। कुलाँचे भर रही निजी अर्थव्यवस्था के बीच भारतीय साधारण से साधारण सार्वजनिक सेवाओं को लेकर व्यथित हैं। जब समाजवाद का दौर चला था, तब स्थिति इससे ठीक उलट थी। तब हम आर्थिक विकास की धीमी गति को लेकर दुःखी होते थे, लेकिन न्यायपालिका, अफसरशाही तथा पुलिस जैसी अपनी संस्थाओं पर गर्व करते थे।

किसी अन्य संस्था ने भारतीयों को उतना निराश नहीं किया है, जितना अफरशाही ने। पचास के दशक में भारतीयों ने नेहरूजी की बात पर विश्वास करते हुए अफसरशाही को 'इस्पाती ढाँचा' मान लिया, जो ब्रिटिश राज की समाप्ति के बाद स्थिरता व निरंतरता की गारंटी देगा। उन्होंने यह भी मान लिया कि विविधताओं भरे देश को एकजुट रखने व 'मिश्रित अर्थव्यवस्था' के विराट ढाँचे को चलाने के लिए शक्तिशाली अफसरशाही की जरूरत होगी।

लेकिन समाजवाद के नाम पर भारतीय अफसरशाही ने हजारों बाधाएँ खड़ी कर दीं और 40 वर्षों तक उद्यमशीलता का गला घोंटे रखा। देश के पास कुछ बहुत अच्छे अफसरशाह तो थे, लेकिन वे व्यापार को समझते नहीं थे, हालाँकि उनके पास उसे तबाह करने की ताकत जरूर थी।

आज भारतीय मानते हैं कि विकास की राह में अफसरशाही ही सबसे बड़ी बाधा है। हाँ, कुछ अच्छे उदाहरण भी हैं, जैसे दिल्ली मेट्रो का निर्माण, इंदौर की सिटी बस सेवा तथा तेजी से विस्तृत होती राष्ट्रीय राजमार्ग प्रणाली, लेकिन ये यही दर्शाते हैं कि अधिकांश अफसरशाही किस कदर नाकाम है।

सरकार की सबसे बड़ी नाकामी प्राथमिक शालाओं के क्षेत्र में है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के माइकल क्रेमर व अन्य द्वारा किए गए एक शोध के अनुसार सरकारी प्राथमिक शाला के चार में से एक शिक्षक अनुपस्थित रहता है और उपस्थित शिक्षकों में हर दो में से एक पढ़ा नहीं रहा होता। जहाँ एक ओर हमारे आईआईटी विश्व स्तरीय ब्रांड बन चुके हैं, वहीं पाँचवीं में पढ़ने वाले आधे से भी कम बच्चे दूसरी के बच्चों के स्तर के काम कर पाते हैं।

स्थिति इतनी खराब हो चुकी है कि गरीब भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूल से उठाकर निजी स्कूलों में डालने लगे हैं, जो प्रतिमाह सौ रुपए फीस लेते हैं और देश की झुग्गी-झोपड़ियों तथा गाँवों में तेजी से पनप रहे हैं। भारत में निजी स्कूल उच्च वर्ग के लिए महँगे बोर्डिंग स्कूलों से लेकर बाजारों में चलने वाली शिक्षा की दुकानों तक हो सकते हैं। हालाँकि कुल मिलाकर निजी स्कूलों के शिक्षकों का वेतन कम ही है, लेकिन उनके विद्यार्थी बेहतर रिजल्ट लाते हैं। इस प्रकार भारत के शहरों के 54 प्रतिशत बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं। यह एक प्रकार का विश्व रिकॉर्ड है!

स्वास्थ्य और जल सेवाओं में भी यही हाल हैं। यहाँ भी गाहे-बगाहे निजीकरण चल पड़ा है। स्वास्थ्य पर होने वाले निजी खर्च में भारत का हिस्सा अमेरिका से दोगुना है। देश में सिंचाई के लगभग सारे नए स्रोत निजी नलकूप ही हैं। उधर सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों में किसी भी समय आपको 40 प्रतिशत डॉक्टर और एक-तिहाई नर्सें अनुपस्थित मिलेंगी। इस बात की 50 प्रतिशत संभावना रहती है कि ऐसे केंद्र पर कोई डॉक्टर रोगी को गलत इलाज बता दे।

भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान अब भी किसी बीते युग में कैद होकर यही मान रहा है कि लोगों की जरूरतों को पूरा करने का एकमात्र रास्ता राज्य और सिविल सेवा ही है। जिस बात की अपेक्षा नहीं की गई थी, वह यह कि राजनेता अफसरशाही को बंधक बना लेंगे और व्यवस्था का इस्तेमाल अपने मित्रों व समर्थकों के लिए नौकरी व पैसे के स्रोत के रूप में करेंगे। शासन में सुधार लाने के लिए कई समझदारीपूर्ण कदम उठाए जा सकते हैं। आंतरिक प्रक्रियाओं के बजाय परिणाम पर ध्यान केंद्रित करने से इसमें सहायता मिलेगी। सेवा प्रदाताओं को जिम्मेदारी सौंपने से भी मदद मिलेगी।

इससे भी ज्यादा जरूरी यह है कि सत्ता प्रतिष्ठान राजनीतिक विज्ञानी जेम्स स्कॉट के शब्दों में 'अफसरशाही उच्च आधुनिकतावाद' पर भरोसा करना बंद करे और यह स्वीकार कर ले कि सरकार का काम शासन करना है, न कि हर चीज का संचालन स्वयं करना। सरकार को स्वास्थ्य व शिक्षा जैसी मूलभूत सेवाओं का वित्तपोषण भले ही करना पड़े मगर सेवा प्रदाता को उसी प्रकार नागरिक के प्रति जवाबदेह होना चाहिए जैसे किसी ग्राहक के प्रति, न कि अपने वरिष्ठ अधिकारी के प्रति। मनःस्थिति में इस बदलाव के बिना कुछ भी नहीं हो सकता।

आज जब भारत अपनी स्वतंत्रता की 61वीं वर्षगाँठ मना रहा है, वह एक ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा है। यह स्पष्ट है कि अगले 20 वर्षों में भारत में समृद्धि का तो विस्तार होगा लेकिन लोगों में खुशहाली तब तक नहीं आएगी, जब तक हम प्रशासनिक सुधारों पर ध्यान नहीं देते और अपनी शासन व्यवस्था को सुधार नहीं लेते।
( लेखक मैनेजमेंट कंसलटेंट एवं प्रॉक्टर एंड गेम्बल इंडिया के पूर्व सीईओ हैं।)

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