राष्ट्रप्रेम का संकल्प लें

Webdunia
- महिमा तारे

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निःसंदेह स्वाधीनता के 60 वर्ष के पश्चात भी यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि आज भी भारत में राष्ट्र क्या है, इसकी परिकल्पना क्या है, यह एक दिशाहीन बहस बन चुकी है। जबकि देश कैसे बनता है, इसे कौन बनाता है, यह अपने आप में सुस्पष्ट है, सुपरिभाषित है। देश को समझना है तो सर्वप्रथम उसकी लघुत्तम इकाई को समझना उचित होगा। यह इकाई है घर या परिवार।

एक घर या उस घर में रहने वाला परिवार किस प्रकार बनता है? उत्तर है घर या परिवार के लिए चाहिए एक निश्चित चहारदीवारी से घिरा भू-भाग। फिर उस घर में रहने वाले सदस्यों के बीच रागात्मक एवं आत्मीय संबंध, उस घर-परिवार की अपनी परंपराएँ, संस्कार एवं संस्कृति और समान मित्र एवं समान शत्रु। ये लक्षण अगर एक घर या परिवार में हैं, तो हम उसे एक आदर्श परिवार या आदर्श घर कहते हैं। ठीक यही तथ्य या लक्षण देश पर लागू होते हैं।

कारण देश कोई जमीन का टुकड़ा भर नहीं है। अगर ऐसा होता तो न केवल कभी शक्ति-संपन्न सोवियत संघ का बिखराव होता और न ही कभी दुनियाभर में बिखरे यहूदी इसराइल को विश्व के मानचित्र में स्थापित कर पाते। भारत में भी राष्ट्र की परिकल्पना एक अत्यंत प्राचीन परिकल्पना है। गंगोत्री से जल लेकर रामेश्वरम पर अभिषेक करना एवं चारों धामों की यात्रा करने का संस्कार आसेतु हिमाचल देश को एक सूत्र में बाँधने की ही परिकल्पना है।
  निःसंदेह स्वाधीनता के 60 वर्ष के पश्चात भी यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि आज भी भारत में राष्ट्र क्या है, इसकी परिकल्पना क्या है, यह एक दिशाहीन बहस बन चुकी है। जबकि देश कैसे बनता है, इसे कौन बनाता है, यह अपने आप में सुस्पष्ट है, सुपरिभाषित है।      


यह कहना गलत होगा कि स्वाधीनता के पश्चात या अँगरेजों की देन से भारत एक राष्ट्र के रूप में स्थापित हुआ। यह इतिहास के प्रति हमारी अज्ञानता का एवं स्व के प्रति विस्मरण का सूचक है।

देश बनता है उसकी संस्कृति से, उसकी परंपराओं से, वहाँ के निवासियों के मन में देश के प्रति असंदिग्ध निष्ठा से। इसीलिए विविध संस्कृतियों को समाहित करने वाला अमेरिका देश भी नागरिकता देने से पहले अपने निवासियों से एक लिखित परीक्षा में राष्ट्रप्रेम संबंधी सवाल पूछता है। अमेरिका के पूर्वजों से, अमेरिका को स्थापित करने वालों से आपके संबंध अगर रागात्मक हैं तो ही अमेरिका में आपके लिए स्थान है।

यह देश का दुर्भाग्य है कि स्वाधीनता के साढ़े पाँच दशक से भी अधिक समय व्यतीत होने के बाद भी 'भारत' आज 'इंडिया' है। संज्ञा का अनुवाद, नाम का अनुवाद अपने आप में एक दुर्भाग्यपूर्ण पीड़ादायक उदाहरण है। यह पीड़ा इशारा करती है कि देश में, देश के अंदर देश से विलग ताकतें न केवल सक्रिय हैं, अपितु खाद-पानी पा रही हैं। इसी के चलते 1929 में रावी के तट पर आजादी का संकल्प लेने के बाद 1947 में रावी हमारे पास नहीं है। कश्मीर जल रहा है। पूर्वांचल में मिशनरी ताकतें फल-फूल रही हैं। पंजाब-हरियाणा के बीच पानी में आग है।

यह परिदृश्य बदलना आज समय की पहली माँग है। इसके लिए आवश्यक है राष्ट्रीयता से ओतप्रोत ताकतें एक मंच पर निहित स्वार्थों को दूर करें और एक समृद्धशाली भारत की रचना करें, जिसका उसमें सामर्थ्य है। यही शुभकामना, यही संकल्प!
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