स्वतंत्रता का संकट

Webdunia
- राजेन्द्र शंकर भट् ट

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भारत की स्वतंत्रता भारतीय परंपरा की निरंतरता भी है। भारतीय संस्कृति ने जिन जीवन मूल्यों की स्थापना की है वे आज पूरे विश्व पर एक से ही लागू होते हैं। ऐसे में मुख्य प्रश्न यह है कि क्या साठ वर्ष पूर्व भारत की स्वाधीनता के जो निहितार्थ थे, वे पूर्ण हो पाए हैं?

स्वतंत्रता के साठ साल पूरे होने पर हमारा यह स्वाभाविक और आवश्यक कर्तव्य बनता है कि जिनके प्रयत्नों, कष्टों और बलिदानों की बदौलत हमें स्वतंत्रता प्राप्त हुई है उनका स्मरण और सम्मान करें। इसके अतिरिक्त इस बात की भी आवश्यकता है कि अँगरेजों के और उनके पहले के विदेशी आक्रमणों और आधिपत्य में देशवासियों के प्रति जो दुराचार और अत्याचार हुए उनके पूरे विवरण इस प्रकार प्रस्तुत किए जाएँ कि वे निरंतर परतंत्रता के विरुद्ध चेतावनी देते रहें। परतंत्रता निरा नारा या कल्पित परिस्थिति नहीं होती।

भारत और भारतवासियों को जो भुगतना पड़ा था, वह परतंत्रता का परिणाम था और उसे जाने बिना परतंत्रता के प्रतिकार के लिए सतत सावधानी की आवश्यकता सुस्पष्ट नहीं हो सकती। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि स्वतंत्रता सदा संकट में रहती है और उसकी सुरक्षा की भावना परतंत्रता से परिचित होने से सुदृढ़ रहेगी। यह भान भी हो सकेगा कि परतंत्रता में मानवीयता और भारतीयता का कैसा-कैसा हनन हुआ था। यह उल्लेख इसलिए आवश्यक है, क्योंकि जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा है, स्वतंत्रता के तत्व और परतंत्रता के कष्ट लोगों को समझाने के प्रयत्न मंद हो गए हैं।

दूसरे अपने स्वार्थों से आबद्ध रहने वालों ने स्वतंत्रता और परतंत्रता में भी जातिगत विभाजन कर लिए हैं। इतना ही नहीं, स्वतंत्रता का श्रेय लेने में उस सर्वव्यापक अभियान के टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाते हैं। भारत का स्वतंत्रता संग्राम जब से प्रारंभ हुआ, इसमें सर्वांगीणता रही है।

देश के निवासियों के जितने भी समूह थे प्रायः सभी आक्रांता और आक्रमण के विरुद्ध खड़े हुए और लड़े। लेकिन इसमें आरंभ से ऐसे तत्व भी रहे हैं, जिन्होंने अपने स्वार्थ के लिए विदेशी हमलावरों का साथ दिया। दोनों वर्गों के संबंध में जानकारी से ही देश के संरक्षक और देश के प्रति विश्वासघात करने वालों का अंतर समझ में आ सकता है। यह इसीलिए भी आवश्यक है, क्योंकि स्वतंत्रता के साथ इन दोनों वर्गों की आशंका सदा के लिए हमारे अस्तित्व से जुड़ गई है।

देश के हित, संरक्षण एवं समृद्धि, सशक्तीकरण के संबंध में आधे इधर आधे उधर जैसे किसी भी मत विभाजन से देश को फिर चोट पहुँच सकती है। गत साठ सालों में सबसे बड़ी कमी यह रही है कि हम ऐसे न्यूनतम तत्व और मूल्य तथा मानदंड, जिनमें परतंत्रता और स्वतंत्रता की स्थितियाँ भी आती हैं, निर्मित और सर्वव्यापक नहीं कर सके, जो देश के लिए न केवल अनिवार्य हैं बल्कि भारतीयता के संवर्धक भी हैं।

भारत में आज भारतीयता से अधिक विदेशी विशेषताओं का आदर ऐसा दुर्गुण है, जिसने आत्मसम्मान, आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता की वह सारी पूँजी गँवा दी है, जो महात्मा गाँधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में निर्मित हुई थी। सौंदर्य क्या होता है, इसकी भारतीय अनुभूति थी। इसमें वस्तुओं की श्रेष्ठता के साथ व्यवहार की और आचरण की शुभप्रेयता भी थी।

श्रेष्ठता और उन्नयन के लिए सतत आग्रह भारतीयता का आंतरिक अंग रहा है। जिसे दुर्व्यवहार अथवा दुराचार कहा जाए, उससे भारतवासी सदा सताए रहे हैं। उसका प्रतिकार कैसे हो, इसकी चेतावनियों और सावधानियों से हमारा नीतिशास्त्र भरा पड़ा है। कोई अनुकूलता, प्रतिकूलता का शमन किए बिना बन नहीं सकती, इसी संवेदना ने भारत में व्यक्ति और समूह के आचरण निर्धारित किए थे।

ऐसा नहीं है कि स्वतंत्रता के बाद देश को सशक्त और देशवासियों को अभावमुक्त करने के प्रयत्न नहीं हुए हैं। परंतु स्वतंत्रता के साठ साल पूरे होने पर हमारे सामने यही आता है कि जितनी अपेक्षा थी उतनी उन्नति नहीं हुई। स्वतंत्रता ने ऐसे परिवर्तन नहीं किए जिनसे स्वतंत्रता के पहले के समय से पूरी तरह मोह भंग हो जाता। स्वतंत्रता की प्राण वायु उसके प्रति आस्था होती है, परंतु उसका जितना उभार है उतना शक्ति संवर्धन नहीं हुआ। इसके व्यावहारिक और वैचारिक दोनों ही पहलू हैं।

यही समय है जब इन दोनों न्यूनताओं पर समग्रता से चिंतन और स्पष्टता से निर्धारण हो। मगर अब समस्या यह हो गई है कि स्वतंत्रता और परतंत्रता दोनों के बारे में स्पष्ट निर्धारण और संकल्पबद्धता नहीं है। इस प्रकार की स्थिति स्वतंत्रता की सुरक्षा में बाधक हो सकती है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का कहना था कि 'निरंतर सावधानी ही स्वतंत्रता का मूल्य हुआ करती है।' जय हिन्द (सप्रेस)

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