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बढ़ता देश, गिरती सेहत

कैसे साकार होगा सुप्रीम पावर बनने का सपना

स्मृति आदित्य
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इस स्वतंत्रता दिवस पर हमारी ‍मुख्य चिंता का विषय स्वाइन फ्लू है। एक आयाति‍त बीमारी। देखा जाए तो स्वाइन फ्लू देश पर आई कोई नई विपदा नहीं है। इससे पहले भी देश ने कई महामारियाँ झेली हैं। सवाल यह उठता है कि हमारे देश की प्रतिरोधक क्षमता इतनी कम क्यों है कि किसी भी देश की कोई भी बीमारी सबसे पहले हमें चपेट में लेती है।

हालाँकि यह भी एक झूठा, आधा-अधूरा सच ही है। हमारे देश को कहीं और से बीमारी उधार लेने की कतई आवश्यकता नहीं है। हमारे अपने देश में बीमारियों की एक लंबी फेहरिस्त है।

यह हमारे मुल्क की कमजोर राजनीति और लचर व्यवस्था है कि देश की गिरती सेहत पर किसी की गंभीर नजर नहीं पड़ती। हम तब आँखें खोलते हैं जब कोई बड़ा-सा फ्लू दस्तक देता है और हम (यानी जनता) मरना आरंभ कर देते हैं। घोर आश्चर्य तो तब होता है जब हमारी राजनीति इस मुकाम पर बड़ी बेशर्मी से खुलासा करती है कि भारत दुनिया के उन पाँच देशों में है जहाँ ‍की सरकार स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च करती है।

आँकड़े शर्मसार कर देने वाले हैं। और हम इतने चिकने घड़े की तरह हैं कि उन्हें अभी याद कर फिर से भूल जाने वाले हैं। एक देश के लिए यह डरा देने वाला कारण होना चाहिए कि यहाँ प्रतिदिन 900 लोग टीबी से मरते हैं।

आँकड़ों से अधिक शर्मनाक है यह तथ्य कि सरकार सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 0.9 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करती है। जबकि पड़ोसी देश चीन अपने सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत सेहत पर खर्च करता है।

भारत में अभी तक बड़ी बीमारियों से निपटने की ताकत विकसित नहीं हुई है, उस पर दूसरी समस्याओं से उत्पन्न बीमारियों की भयावहता लगातार बढ़ती जा रही है। एड्स, कैंसर, ब्लड-प्रेशर, मधुमेह जैसी बीमारियों का डर कायम है वहीं दूसरी तरफ ‍गरीबी, निरक्षरता, अज्ञानता, अस्वच्छता तथा रूढ़िवादिता के दूरगामी परिणाम अंतत: सेहत पर ही असर डालते हैं। ‍पिछले माह 27 जुलाई 2009 को महिला एवं बाल विकास मंत्री कृष्णा तीरथ ने स्वीकार किया कि देश में कुपोषण की दर बहुत अधिक है।

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विगत दिनों ही दो और डरा देने वाले तथ्य सामने आए। कहा गया कि एड्स के मामले में भारत ने दक्षिण अफ्रीका को पीछे छोड़ दिया है। यहाँ तक कि भारत में यह महामारी नियंत्रण से बाहर हो चुकी है। चाहे यह पूरा सच न भी हो लेकिन दूसरे स्थान पर तो हम फिर भी हैं। दूसरा तथ्य भी दिल दहला देने वाला है। भारत में हर साल साढ़े सात लाख कन्याओं को पैदा होने से पहले ही मार डाला जाता है। इस आँकड़े की चीत्कार भी कन्या भ्रूण की चीख की तरह प्रतिवर्ष दबा दी जाती है।

आजादी के पिछले 62 साल न जाने कितने मुद्दे राष्ट्रीय एजेंडा में सजाए गए लेकिन स्वास्थ्य को जिस रूप में प्राथमिकता मिलनी थी, नहीं मिली। हो सकता है वरीयता सूची में 'सेहत' कहीं किसी बिन्दु की तरह चमका भी हो लेकिन क्रियान्वयन की शिथिलता ने भारत की स्वास्थ्य समस्याओं में वृद्धि ही की, कमी नहीं।

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संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की पिछले दिनों जारी रिपोर्ट में भारत 128वें स्थान पर रहा। गौरतलब है कि वर्ष 2000 में भी हम इसी स्थान पर थे। यह स्थान चार प्रमुख सूचकाँक-जीवन प्रत्याशा, शिक्षा, साक्षरता और जीवन स्तर पर निर्धारित किया जाता है। स्वास्थ्य इसमें अन्तर्निहित होता है क्योंकि जीवन-प्रत्याशा यानी जीवन जीने की अधिकतम आयु तभी बढ़ सकती है जब देश की जनता सेहत की दृष्टि से खुशहाल हो।

प्रतिवर्ष सूचकाँक में फेरबदल भी होते हैं जैसे पिछली रिपोर्ट में यह जोड़ा गया था कि वही देश विकसित होने की राह पर अग्रसर माना जाएगा जहाँ आम आदमी को स्वच्छ पेयजल मुहैया हो। इस आधार के मद्देनजर हम निकट भविष्य में भी यह कल्पना नहीं कर सकते कि हमारा देश इस पायदान से अपनी जगह बदल पाएगा।

दुर्भाग्य यह है कि हम इस बात पर अधिक खुश होते हैं कि पड़ोसी मुल्क की तुलना में हम कहाँ हैं। पड़ोसी राष्ट्र का मतलब हमारे लिए महज पाकिस्तान ही क्यों होता है? जबकि अगर हम पूरी आँखें खोलें तो चीन 99वें स्थान से 81वें स्थान पर आ गया है। पड़ोसी देश बांग्लादेश से भी सीख लेने का हम में माद्दा नहीं है जो निरंतर बदहाली और राजनैतिक उलटफेर का शिकार होते हुए भी सात सालों में 6 स्थान ऊपर आ गया है।

अब गौर इस बात पर भी कीजिए कि दुनिया के सर्वाधिक भ्रष्ट देशों में भारत 85वें पायदान पर आ गया। और विश्वास कीजिए कि ‍पिछले साल के मुकाबले यहाँ हम 12 पायदान ऊपर चढ़े हैं।

सवाल यह नहीं है कि कितना दुःखी होना चाहिए हमें इन आँकड़ों के आईने में खुद को देखते हुए? सवाल यह है कि आईने का यह कसैला सच सरकारी कागजों पर अपना प्रतिबिम्ब उल्टा क्यों दिखाता है? क्यों सरकारी घोषणा के झूठ की आवाज इतनी बुलंद होती है कि सच का कंठ अवरुद्ध हो जाता है? आँकड़े हर वर्ष बेशर्मी से फैलते हैं लेकिन सरकारी कागजों पर आते ही सिकुड़ जाते हैं। इस 'सिकुड़न' से हम उस सच को नजरअंदाज तो नहीं कर सकते जो देश की सेहत पर निरंतर प्रहार कर रहा है।

आज जो स्वाइन फ्लू हमारी रात-दिन की नींद ले उड़ा है, वह एकदम तो नहीं पनपा होगा। हमारी अव्यवस्थाओं के चलते गंदगी फैली है। हमारी असावधानियों ने ही किसी बीमारी को डेरा जमाने की इजाजत दी है। और हमारी राजनीतिक जागरूकता में कमी के कारण ही देश की स्वास्थ्य सुविधा में सरकार उतना खर्च नहीं करती जितना करना चाहिए।

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क्या हमारी सरकार की सोच इस दिशा में आगे नहीं जाती कि जन-सामान्य के लिए एक व्यापक स्वास्थ्य बीमा योजना लागू करे जो उन्हें (जनता को) महँगा स्वास्थ्य खर्च वहन करने की ताकत दें। 'पहला सुख निरोगी काया' का नारा देने वाले देश में आरोग्यता की स्थिति निरंतर गिरती जा रही है और सांसदों को फुर्सत नहीं है कि ऐसे अहम मुद्दे संसद में उठा सकें।

हमारे देश के नेता जीते जी मूर्तियाँ लगवाने में उस जनता का करोड़ों रुपया खा रहे हैं जो प्रतिदिन भूख, गरीबी, बदहाली और माकूल स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में दम तोड़ रही है। एक तरफ देश की सेहत में हो रही गिरावट आज हमारी चिंता का विषय होना चाहिए वहीं दूसरी तरफ सरकार को सकल घरेलू उत्पाद में से स्वास्थ्य सुविधा पर व्यय की मदें बढ़ाने पर सोचना होगा। अगर यह वक्त रहते नहीं हुआ तो ऐसे बीमार-लाचार राष्ट्र को सुप्रीम पावर बनने का सपना देखना भी छोड़ देना चाहिए।

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