राष्ट्रीयता से ओतप्रोत कवि : अदम गोंडवी

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- दिनेश 'दर्द'

जिस वर्ष देश ने ग़ुलामी की ज़ंजीरें उतार कर आज़ादी के कंगन पहने और सुहाग सजाया, उसी वर्ष उत्तरप्रदेश गोंडा के ग्राम परसपुर में 22 अक्टूबर को आंखें खोली रामनाथसिंह ने। तरुणाई तक आते-आते यही रामनाथसिंह हो गए अदम गोंडवी। अदम ने अपनी रचनाओं को किसी महबूबा की जुल्फ़ों के पेच-ओ-ख़म से आज़ाद ही रक्खा क्योंकि उनकी तबीयत में ही जैसे कोई बग़ावत छुपी थी।

 
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इसी बग़ावत को उन्होंने अपनी रचनाओं में ढाला और फिरंगियों से मिली आज़ादी के बाद देश को दीमक की तरह चाट रही अव्यवस्थाओं पर जबरदस्त प्रहार किया। उनके इन्हीं तेवर और फ़िक्र ने उन्हें जनकवि बना दिया। कम-अज़-कम आज के दिन तो उनकी रचनाओं को पढ़ा जाना बेहद ज़रूरी है।

अगले पेज पर पेश है उनकी एक मकबूल रचना के साथ कुछ और क़ाबिले ग़ौर रचनाएं।



देश क्या आज़ाद है

सौ में सत्तर आदमी, फिलहाल जब नाशाद है,
दिल पे रखकर हाथ कहिये, देश क्या आज़ाद है।

कोठियों से मुल्क के मेयार को मत आंकिये,
असली हिंदुस्तान तो फुटपाथ पर आबाद है।

सत्ताधारी लड़ पड़े है आज कुत्तों की तरह,
सूखी रोटी देखकर हम मुफ्लिसों के हाथ में।

जो मिटा पाया न अब तक भूख के अवसाद को,
दफन कर दो आज उस मफ्लूश पूंजीवाद को।

जिस शहर के मुन्तज़िम अंधे हों जलवागाह के,
उस शहर में रोशनी की बात बेबुनियाद है।

जो उलझ कर रह गई है फाइलों के जाल में,
रोशनी वो गांव तक पहुंचेगी कितने साल में।




अदम गोंडवी ने आम आदमी की परेशानियां आत्मसात की और उन्हें कलमबद्ध कर अपने अंदाज़ और तेवर में एक मशाल रोशन की। समाज में फैली अव्यवस्थाओं के विरुद्ध अंतिम सांस तक वे अपनी रचना रूपी शमशीर के सहारे एक योद्धा की तरह लड़ते रहे। देखिए, एक बानगी-

काजू भुने पलेट में, व्हिस्की गिलास में, उतरा है रामराज, विधायक निवास में
पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत, इतना असर है खादी के उजले लिबास में
आज़ादी का वो जश्न मनाएं तो किस तरह, जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें, संसद बदल गई है यहां की नखास में
जनता के पास एक ही चारा है बग़ावत, यह बात कह रहा हूं मैं होशो-हवास में

मौजूदा हालात की मंज़रकशी करती एक और रचना ग़ौरतलब है-अगले पेज पर


हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए,
अपनी कुर्सी के लिए जज्बात को मत छेड़िए
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है,
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए
गर ग़लतियां बाबर की थीं, जुम्मन का घर फिर क्यों जले,
ऐसे नाज़ुक वक्त में हालात को मत छेड़िए
हैं कहां हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ां,
मिट गए सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िए
छेड़िए इक जंग, मिलजुल कर ग़रीबी के खिलाफ़,
दोस्त मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िए।

समाप्त

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