वर्तमान परिप्रेक्ष्य में स्वतंत्रता

देवेन्द्र सोनी
स्वतंत्रता के परिप्रेक्ष्य में जब भी बात उठती है, सबसे पहले हमारे जेहन में देश की आजादी  का ख्याल आता है। स्वाभाविक भी है यह। मुगल सल्तनत और अंग्रेजों की दासता से मुक्त  कराने में हमारे शहीदों की शहादत प्रणम्य है। उन्हें याद करना, नई पीढ़ी को क्रूर इतिहास  से अवगत कराना और देशहित में प्रेरणा लेना भी स्वतंत्र भारत की अनिवार्यता होना चाहिए,  पर मुझे लगता है अब यह मात्र दिखावा बनकर रह गया है।
 
भारत को गुलामी के जीवन और उन यातनाओं से आजाद हुए 70 वर्ष हो गए हैं। उन  दशकों में जन्मी अधिकांश आबादी भी अब मौजूद नहीं है। परिस्थितियां बदली हैं, हमारे  सोचने-समझने का दायरा भी बदला है और इसके साथ ही हमारी जवाबदेही भी बदली है। 
 
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में स्वतंत्रता के मायने मुझे बदले हुए नजर आते हैं। आज स्वतंत्रता की  सर्वाधिक चर्चा स्त्री स्वतंत्रता को लेकर होती नजर आती है। स्वतंत्रता के नाम पर एक वर्ग  की अकुलाहट/ विमर्श ने संपूर्ण व्यवस्था को ध्वस्त कर रखा है। कह सकता हूं कि हम फिर  एक नई गुलामी के युग में प्रवेश करते जा रहे हैं। 
 
साफ-सा आशय यह है कि जिस देश में नारी को देवी का महत्व दिया जाता हो, उनके  विविध स्वरूपों की पूजा-अर्चना की जाती हो, वह आज बराबरी का दर्जा पाने को व्याकुल  है। क्या यह खुद के महत्व को कम करने वाली बात नहीं है?
 
ऐसी स्वतंत्रता किस काम की, जो मुख्य दायित्व से विमुख कर दे? माना बहुत बड़ा तबका  आज भी शोषित है, पर क्या वह सीमित दायरे में सुरक्षित नहीं है? स्वतंत्रता की आड़ में  कितनी महिलाओं का आज भी शोषण होता है! स्वतंत्रता जब स्वच्छंदता की ओर बढ़ने  लगती है तो फिर उसके परिणाम किसी न किसी की गुलामी पर ही आकर टिकते हैं, यह  सार्वभौम सत्य है। 
 
अलावा इसके, एक महिला को यदि आवश्यकता न होने पर भी परिवार से नौकरी करने की  आजादी मिलती है तो क्या वह दो-चार महिलाओं को अपने घर में कामवाली बाई के रूप में  रखकर अपना गुलाम नहीं बनाती? क्या स्वतंत्रता समान रूप से सबको हासिल हो सकती  है? कहीं न कहीं, कोई न कोई तो गुलामी करने को विवश होगा ही। यहां यह तर्क दिया जा  सकता है कि उन्हें भी पैसों की जरूरत है। हम तो उपकार ही कर रहे, पर क्या यह समान  स्वतंत्रता का रूप हो सकता है? 
 
खैर! स्वतंत्रता के बदले अर्थों से न जाने कितने परिवार तबाह हुए हैं, चाहे लिव-इन-रिलेशन  हो, एकाकी जीवन हो या घर के सदस्यों में बिखराव हो। बच्चों का लालन-पालन आया  (गुलाम) के भरोसे हो या बुजुर्ग वृद्धाश्रम में रहें- जरूरी है हमारी स्वतंत्रता!
 
अब आएं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर। सबको मिली है यह पर इसका जितना दुरुपयोग  स्वतंत्र भारत में हो रहा है, उतना कभी नहीं हुआ। संयम के बांध टूट रहे हैं। जिसके मन में  जो आ रहा है, वह व्यक्त कर रहा है। परिणाम की कोई चिंता नहीं। क्या यही वास्तविक  स्वतंत्रता है?
 
क्षेत्र चाहे कोई हो- आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक या व्यावसायिक- स्वतंत्रता को संयमित  करना ही होगा, क्योंकि इसकी परिणति अंतत: बहकती हुई बर्बादी में ही होती है।

वंदे मातरम
 

 
Show comments

जरूर पढ़ें

कब-कब हुई भगदड़ की बड़ी घटनाएं, डराने वाले इन आंकड़ों को देखिए

बंगाल की धरती से मोहन भागवत ने बताया RSS का अगला प्लान, हिन्दुओं को लेकर कही बड़ी बात

दिल्ली के CM पर कल खत्म हो सकता है सस्पेंस, शपथ ग्रहण समारोह को लेकर बड़ा अपडेट

अघाड़ी में पड़ी दरार, फडणवीस से मिले उद्धव, शिंदे की शरद पवार ने की तारीफ, महाराष्ट्र में नए सियासी समीकरण

फालतू है कुंभ, लालू यादव ने बताया किसकी गलती से मची नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भगदड़

सभी देखें

नवीनतम

Maha Kumbh : महाकुंभ में रविवार को 1.36 करोड़ लोगों ने संगम में लगाई डुबकी, 52.83 करोड़ पहुंचा आंकड़ा, ऐसे किया गया क्राउड मैनेजमेंट

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर मची भगदड़ के बाद रविवार को क्या रही स्थिति, पढ़िए हर अपडेट

delhi stampede : कब-कब हुई भगदड़ की बड़ी घटनाएं, डराने वाले इन आंकड़ों को देखिए

Mohan Bhagwat : बंगाल की धरती से मोहन भागवत ने बताया RSS का अगला प्लान, हिन्दुओं को लेकर कही बड़ी बात

NDLS Stampede : बच्चों के बैग और बिखरे सामान, खोई हुई जिंदगियों की याद दिलाते भगदड़ के भयावह दृश्य

अगला लेख