आजादी के 65 साल: कुछ जलते सवाल

- देश बदहाल या खुशहाल

स्मृति आदित्य
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65 वर्ष किसी भी देश के संपूर्ण विकास के लिए पर्याप्त समय हो सकता है। अगर सचमुच विकास की हार्दिक मंशा हो, आगे बढ़ने की ललक हो और सबसे अहम ईमानदार प्रयास हों। भारत के संबंध में हम थोड़ी दया-दृष्टि इसलिए रखते हैं क्योंकि आजादी के वक्त हमें देश जर्जर अवस्था में मिला, अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हालात में मिली और फिर सबसे अहम कि हमें विभाजन का दंश भी मिला। ऐसे हालातों में देश को नैतिक व सांस्कृतिक रूप से समेट सकने वाले प्रखर नेता स्वयं हताश और परेशान नजर आए।

विकास की गाथा तब भी अबाध गति से लिखी जा सकती थी बशर्ते पुरानी समस्याओं से छुटकारा पाने के प्रयास चाहे धीमे होते पर नई मुसीबतों को जन्म ना लेने दिया जाता। लेकिन हुआ यही कि जिन मोर्चों पर हमें मजबूत होना था वहां हम निरंतर कमजोर होते गए और जिन मोर्चों को पनपने ही नहीं देना था वहां हमने लापरवाही से उनके लिए भरपूर 'स्पेस' दिया।

65 साल में यूं तो इतनी समस्याएं हमारे सामने हैं कि आमिर का 'सत्यमेव जयते' 365 दिन भी प्रसारित हो सकता है लेकिन ‍विगत वर्षों में देश के अविकास के तीन प्रमुख कारण ऐसे उभरे हैं जिन पर आवश्यक रूप से चिंतन किया जाना जरूरी है।

क्या है भारत की बदहाली का सबसे बड़ा कारण, जाने अगले पन्ने पर...

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1. भ्रष्टाचार : कितना पतन होगा अभी?
भ्रष्ट और आचरण इन दो शब्दों के मिलन ने जिस भ्रष्टाचार शब्द को जन्म दिया आज उसका विकराल रूप देखकर दहशत होने लगी है। देश के नेताओं और कुछ नौकरशाहों ने देश को खाली कर अपना घर भरने की जो मुहिम चालू की है उसने देश को बर्बाद कर के रख दिया है।

नेताओं तथा नौकरशाहों की संपत्ति और बैक बैलेंस के आंकड़ों में लगे शून्य आप गिनते हुए थक सकते हैं लेकिन उनकी दौलत की पिपासा तृप्त कभी नहीं होती। कालाधन और भ्रष्टाचार के खिलाफ जो माहौल पिछले वर्ष बना वह अगर देश के पतन के गर्त में गिरते समय किसी नेता ने बना दिया होता, उस वक्त अगर कोई अन्ना उठ खड़ा होता तो शायद इस समय देश की फिजा कुछ और होती।

हालांकि देर से आए इस दुरुस्त कदम ने भी आशा की नई डोर हमें थमाई थी लेकिन अन्ना आंदोलन का यूं बैठ जाना, या कहें कि अंतत: राजनीति की शरण में उनका जाना फिर इस तथ्य को पुष्ट करता है कि इस देश में ताकत आम आदमी के हाथ में नहीं बल्कि नेताओं के ही हाथों में निहित है। लोकतंत्र का इससे बड़ा परिहास क्या हो सकता है कि नेता का नेता के लिए नेता द्वारा शासन ही अब उसकी परिभाषा बन गया है।

ना सिर्फ राजनीति बल्कि देश में ऐसा कोई क्षेत्र नहीं बचा जहां दो नंबर का पैसा, ऊपरी कमाई जैसे शब्द प्रचलन में ना हो। नेता और बड़े अधिकारी से लेकर निम्न से निम्न पद पर कार्यरत चपरासी, पटवारी, तहसीलदार या क्लर्क के घर से भी करोड़ों-अरबों की संपत्ति का मिलना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि पानी बिना 'बांध' के सिर के ऊपर से गुजरने लगा है।

क्या है दूसरा कारण भारत की बर्बादी का, पढ़‍िए अगले पन्ने पर...

2. अशिक्षा :
शिक्षा जगत ने कागजों पर चाहे जितनी उन्नति दर्ज कर ली हो, विज्ञापनों में चाहे जितने लुभावने दावे और वादे सजा कर परोस दिए गए हो मगर जमीनी हकीक‍त चौंका देने वाली है। आज भी लाखों परिवार शिक्षा के उजियारे से वंचित हैं।

आज भी ड्रॉप आऊट्स (बीच में पढ़ाई छोड़ देने वाले) की संख्या में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं है। आज भी पूर्णत: 'साक्षर' घोषित किए गए गांवों से 'मतपत्रों पर अंगूठा लगाने की सूचनाएं' इसी देश से आ रही है। आज भी दूरस्थ क्षेत्रों में मूलभूत सुविधाएं नहीं है। लोग खेतों से बाहर आकर साक्षरता केन्द्रों तक जाने को तैयार नहीं है और हमारे प्रधानमंत्री हर गरीब को मोबाइल मुहैया करने का सतरंगी सपना दिखा रहे हैं।

अशिक्षा से उपजी दूसरी समस्याएं देश के लिए खतरनाक सिद्ध हो रही है और शिक्षा मंत्रालय को संचालित करते हमारे कर्णधार संसद में शोर मचाने के सिवा कुछ नहीं कर पा रहे हैं।

कहीं जननी और लाड़ली के प्रति ऐसा व्यवहार ही तो नहीं बदहाली की जड़, पढ़े अगला पन्ना...

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3. महिला के प्रति अपराध :
इस विषय पर चिंतन करना सदियों से सारे समाज की प्राथमिकता होना था लेकिन नहीं हो सका। यह वही देश है जहां 65 साल बाद भी स्त्री सरेबाजार अपमानित-प्रता‍ड़‍ित होती है और लोग अपने भीतर इतना साहस नहीं जुटा पाते कि ऐसे अपराधों को रोक सके।

यही वह देश है जहां हमने मां की कोख से लेकर समाज के प्रबुद्ध तबके तक महिलाओं के प्रति अत्याचार के नित-नए बेशर्म उदाहरण रचे हैं। मात्र 8 माह में नेताओं का अश्लील सीडी से लेकर महिला-हत्या(फिजा) और महिला-आ‍त्महत्या (गीतिका) प्रकरणों तक में नाम प्रमुखता से उभरता है और देश में फिर एक बेशर्म खामोशी पसरी रहती है।

ऐसे में 65 साल का आकलन करना कितना दुष्कर है अंदाज लगाया जा सकता है। महिला के प्रति अपराध में किसी भी स्तर पर कमी नहीं देखी गई क्योंकि दोषियों को समुचित सजा नहीं मिलती। सजा देने का जो नैतिक साहस देश के सत्तासीनों से अपेक्षित है वह दिखना संभव ही नहीं क्यों‍कि हालात यह है कि वे स्वयं ही कटघरे में हैं।

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देश को नाम के आधार पर पुकारा जाए तो 'इंडिया' की महिलाओं ने 65 साल में प्रगति के परचम लहराए हैं जबकि 'भारत' की स्त्री आज भी लाचार, बेबस और असहाय है।

सोचिए अवकाश के ही बहाने :

65 साल, एक पड़ाव है भागते-भागते भी थोड़ा ठहर कर सोचने का, सोचकर एक सही दिशा में सार्थक संकल्प का और संकल्प को साकार करने का। इतने सालों में हम इतने उलझे रहे फिर क्या आने वाले सालों में सुलझ पाएंगे? स्वतंत्रता दिवस पर सोचिएगा क्योंकि इस दिन तो 'राष्ट्रीय अवकाश' भी होता है।

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