1.
भ्रष्टाचार : कितना पतन होगा अभी? भ्रष्ट और आचरण इन दो शब्दों के मिलन ने जिस भ्रष्टाचार शब्द को जन्म दिया आज उसका विकराल रूप देखकर दहशत होने लगी है। देश के नेताओं और कुछ नौकरशाहों ने देश को खाली कर अपना घर भरने की जो मुहिम चालू की है उसने देश को बर्बाद कर के रख दिया है।
नेताओं तथा नौकरशाहों की संपत्ति और बैक बैलेंस के आंकड़ों में लगे शून्य आप गिनते हुए थक सकते हैं लेकिन उनकी दौलत की पिपासा तृप्त कभी नहीं होती। कालाधन और भ्रष्टाचार के खिलाफ जो माहौल पिछले वर्ष बना वह अगर देश के पतन के गर्त में गिरते समय किसी नेता ने बना दिया होता, उस वक्त अगर कोई अन्ना उठ खड़ा होता तो शायद इस समय देश की फिजा कुछ और होती।
हालांकि देर से आए इस दुरुस्त कदम ने भी आशा की नई डोर हमें थमाई थी लेकिन अन्ना आंदोलन का यूं बैठ जाना, या कहें कि अंतत: राजनीति की शरण में उनका जाना फिर इस तथ्य को पुष्ट करता है कि इस देश में ताकत आम आदमी के हाथ में नहीं बल्कि नेताओं के ही हाथों में निहित है। लोकतंत्र का इससे बड़ा परिहास क्या हो सकता है कि नेता का नेता के लिए नेता द्वारा शासन ही अब उसकी परिभाषा बन गया है।
ना सिर्फ राजनीति बल्कि देश में ऐसा कोई क्षेत्र नहीं बचा जहां दो नंबर का पैसा, ऊपरी कमाई जैसे शब्द प्रचलन में ना हो। नेता और बड़े अधिकारी से लेकर निम्न से निम्न पद पर कार्यरत चपरासी, पटवारी, तहसीलदार या क्लर्क के घर से भी करोड़ों-अरबों की संपत्ति का मिलना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि पानी बिना 'बांध' के सिर के ऊपर से गुजरने लगा है।
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3.
महिला के प्रति अपराध : इस विषय पर चिंतन करना सदियों से सारे समाज की प्राथमिकता होना था लेकिन नहीं हो सका। यह वही देश है जहां 65 साल बाद भी स्त्री सरेबाजार अपमानित-प्रताड़ित होती है और लोग अपने भीतर इतना साहस नहीं जुटा पाते कि ऐसे अपराधों को रोक सके।
यही वह देश है जहां हमने मां की कोख से लेकर समाज के प्रबुद्ध तबके तक महिलाओं के प्रति अत्याचार के नित-नए बेशर्म उदाहरण रचे हैं। मात्र 8 माह में नेताओं का अश्लील सीडी से लेकर महिला-हत्या(फिजा) और महिला-आत्महत्या (गीतिका) प्रकरणों तक में नाम प्रमुखता से उभरता है और देश में फिर एक बेशर्म खामोशी पसरी रहती है।
ऐसे में 65 साल का आकलन करना कितना दुष्कर है अंदाज लगाया जा सकता है। महिला के प्रति अपराध में किसी भी स्तर पर कमी नहीं देखी गई क्योंकि दोषियों को समुचित सजा नहीं मिलती। सजा देने का जो नैतिक साहस देश के सत्तासीनों से अपेक्षित है वह दिखना संभव ही नहीं क्योंकि हालात यह है कि वे स्वयं ही कटघरे में हैं।
देश को नाम के आधार पर पुकारा जाए तो 'इंडिया' की महिलाओं ने 65 साल में प्रगति के परचम लहराए हैं जबकि 'भारत' की स्त्री आज भी लाचार, बेबस और असहाय है।
सोचिए अवकाश के ही बहाने : 65 साल, एक पड़ाव है भागते-भागते भी थोड़ा ठहर कर सोचने का, सोचकर एक सही दिशा में सार्थक संकल्प का और संकल्प को साकार करने का। इतने सालों में हम इतने उलझे रहे फिर क्या आने वाले सालों में सुलझ पाएंगे? स्वतंत्रता दिवस पर सोचिएगा क्योंकि इस दिन तो '
राष्ट्रीय अवकाश' भी होता है।