लगता तो अविश्वसनीय सा है सात रंगों के बारे में मगर जब इंसान अपनी आंखों से उन्हें देखता है तो वह यह महसूस करता है कि दुनिया का आठवां आश्चर्य उसके सामने है। सूर्य की गति के साथ-साथ कोई भी बड़ी आसानी के साथ इसके बदलते रंगों को अपनी नंगी आंखों से देख सकता है जो सफेद, आसमानी, नीला, हरा, भूरा, संतरी तथा काला होता है।
अब इस झील को भारतीय तथा विदेशी पर्यटकों के लिए खोल दिया गया है जबकि पहले इसका दौरा करने के लिए जिला मैजिस्ट्रेट की अनुमति लेकर आना पड़ता था। वैसे झील की खूबसूरती अवर्णनीय है ही, उसके किनारे के नंगे ऊंचे बर्फ से ढंके रहने वाले पहाड़ भी कम मनोहारी नहीं हैं भले ही उन पर कोई पेड़-पौधा नहीं है। 14256 फुट की ऊंचाई पर स्थित इस झील पर तापमान्य शून्य से भी कई डिग्री नीचे रहता है। वैसे इन पहाड़ों की बदकिस्मती यह है कि इसके पीछे की भूमि पर चीन का अवैध कब्जा है और भारत सरकार ने आज तक इस मामले को निपटाने की कोशिश नहीं की।
कभी-कभार झील की खोमाशी को साईबेरियाई पक्षियों को तोड़ते हुए देखा जा सकता है। जो इन क्षेत्रों में कभी-कभार ही दिखाई पड़ते हैं। आसपास कोई जीवन नहीं है सिवाय सीमांत चौकियों के तथा बंकरों के भीतर बैठे भारतीय सैनिकों के। हालांकि भारतीय सेना मोटरबोट से इस झील में गश्त करती रहती है।
झील का पानी अंदर-बाहर नहीं होता है क्योंकि कोई निकास द्वार ही नहीं है झील का, इसी कारण से इसका पानी बहुत ही नमकीन है। झील के किनारे जमी नमक की परतें इस बात को दर्शाती हैं कि चंद्रमा के घटने बढ़ने के साथ ही उसका पानी भी ज्वार-भाटा की शक्ल धारण करता होगा। झील के किनारों पर मात्र पत्थर ही मिलते हैं जिन पर नमक की तहें जमी होती हैं। कहा जाता है कि झील में कई खनिज पदार्थ छुपे हुए हैं क्योंकि बर्फ के पिघलने के कारण वे इसमें जमा हो जाते हैं। वैसे इसे विश्व का ऊंचाई पर स्थित समुद्र भी कहा जा सकता है क्योंकि जितना क्षेत्रफल इसका है वह किसी समुद्र से कम नहीं है और ठीक समुद्र की ही तरह इसमें भी खनिज पदार्थ छुपे पड़े हैं।
सदियों पुरानी इस झील का अपना एक लंबा इतिहास भी है। कई एतिहासिक युगों की मूक गवाह भी है यह झील। एतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार यह मन को लुभावने वाले झील 1684 में उस समय एतिहासिक रिकॉर्ड में दर्ज की गई थी जब लद्दाख तथा तिब्बत के बीच तिंगमोसमांग की संधि हुई थी जिसके अनुसार यह झील लद्दाख तथा तिब्बत के बीच सीमा रेखा का कार्य करती थी। यह संधि लद्दाख के तत्कालीन राजा देलदान नामग्याल तथा तिब्बत के रीजेंट के बीच खलसी के नजदीक स्थित तिंगमोसमांग के महल में हुई थी। तब इस झील को दो देशों के बीच सीमा के रूप में स्वीकार किया गया था।
इस झील की सुरक्षा के लिए सैनिक भी तैनात हैं जो मोटरबोट से गश्त करते हैं इसके बीच में। लेकिन वे दिसंबर, जनवरी, फरवरी तथा मार्च में इसमें गश्त नहीं कर पाते हैं क्योंकि तब इस झील का पानी चार-चार फुट की गहराई तक जम जाता है। हालांकि इतना आथाह समुद्र होने के बावूजद भी यहां पीने के पानी की भारी कमी है क्योंकि झील का पानी नमकीन होने के कारण पीने के योग्य नहीं है और मजेदार बात यह है कि पैंगांग झील का दौरा अपने आप में एक अनुभव होता है क्योंकि कई दर्रों पर ऑक्सीजन की भारी कमी है और अब इसके आसपास सुविधाएं उपलब्ध करवाई जाने लगी हैं क्योंकि कुछ साल पहले तक विदेशी व स्वदेशी पर्यटकों के लिए प्रतिबंधित रही झील के 160 किमी लंबे रास्ते में कोई सुविधाएं नहीं थीं ।