सैल्यूलर जेल भारत के इतिहास का एक काला अध्याय है। स्वतंत्रता संग्राम के शुरुआत में अंग्रेजों ने भारतीय सेनानियों पर बहुत कहर ढाया। हजारों लोगों को फाँसी पर लटकाया गया, पेड़ों पर बाँधकर फाँसी दी गई और तोपों के मुँह पर बाँधकर उन्हें उड़ाया गया। कइयों को देश निकाला की सजा देकर यहाँ लाया जाता था और उन्हें उनके देश और परिवार से दूर रखा जाता था।
सबसे पहले 200 विद्रोहियों को जेलर डेविड बेरी और मेजर जेम्स पैटीसन वॉकर की सुरक्षा में यहाँ लाया गया। उसके बाद 733 विद्रोहियों को कराची से लाया गया। भारत और बर्मा से भी यहाँ सेनानियों को सजा के बतौर लाया गया था।
सुदूर द्वीप होने की वजह से यह विद्रोहियों को सजा देने के लिए अनुकूल जगह समझी जाती थी। उन्हें सिर्फ समाज से अलग करने के लिए यहाँ नहीं लाया जाता था, बल्कि उनसे जेल का निर्माण, भवन निर्माण, बंदरगाह निर्माण आदि के काम में भी लगाया जाता था। यहाँ आने वाले कैदी ब्रिटिश शासकों के घरों का निर्माण भी करते थे। 19वीं शताब्दी में जब स्वतंत्रता संग्राम ने जोर पकड़ा, तब यहाँ कैदियों की संख्या भी बढ़ती गई।
सैल्यूलर जेल का निर्माण 1896 में प्रारंभ हुआ और 1906 में यह बनकर तैयार हुई। इसका मुख्य भवन लाल ईंटों से बना है। ये ईंटें बर्मा से यहाँ लाई गईं, जो आज म्यांमार के नाम से जाना जाता है। इस भवन की 7 शाखाएँ हैं और बीचोंबीच एक टावर है। इस टावर से ही सभी कैदियों पर नजर रखी जाती थी। ऊपर से देखने पर यह साइकल के पहिए की तरह दिखाई देता है। टावर के ऊपर एक बहुत बड़ा घंटा लगा था, जो किसी भी तरह का संभावित खतरा होने पर बजाया जाता था।
प्रत्येक शाखा तीन मंजिल की बनी थी। इनमें कोई शयनकक्ष नहीं था और कुल 698 कोठरियाँ बनी थीं। प्रत्येक कोठरी 15 ×8 फीट की थी, जिसमें तीन मीटर की ऊँचाई पर रोशनदान थे। एक कोठरी का कैदी दूसरी कोठरी के कैदी से कोई संपर्क नहीं रख सकता था।
अंग्रेजों द्वारा अमानवीय अत्याचार करने के कारण 1930 में यहाँ कैदियों ने भूख हड़ताल कर दी थी, तब महात्मा गाँधी और रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसमें हस्तक्षेप किया। 1937-38 में यहाँ से कैदियों को स्वदेश भेज दिया गया था।
जापान का कब्जा जापानी शासकों ने अंडमान पर 1942 में कब्जा किया और अंग्रेजों को वहाँ से मार भगाया। उस समय अंग्रेज कैदियों को सैल्यूलर जेल में बंद कर दिया गया था। उस दौरान नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने भी वहाँ का दौरा किया था। 7 में से 2 शाखाओं को जापानियों ने नष्ट कर दिया था। द्वितीय विश्व युद्ध खत्म होने के बाद 1945 में फिर अंग्रेजों ने यहाँ कब्जा जमाया।
आजादी के बाद भारत को आजादी मिलने के बाद इसकी दो और शाखाओं को ध्वस्त कर दिया गया। शेष बची तीन शाखाएँ और मुख्य टावर को 1969 में राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया गया। 1963 में यहाँ गोविन्द वल्लभ पंत अस्पताल खोला गया। वर्तमान में यह 500 बिस्तरों वाला अस्पताल है और 40 डॉक्टर यहाँ के निवासियों की सेवा कर रहे हैं।
10 मार्च 2006 को सैल्यूलर जेल का शताब्दी वर्ष समारोह मनाया गया। भारत सरकार द्वारा इस जेल में सजा काट चुके कैदियों को बधाई भी दी गई। 1996 में बनी मलयालम फिल्म काला पानी की शूटिंग यहीं पर हुई थी।