महर्षि पाणिनी का जन्म पंजाब के शालातुला में हुआ था, जो वर्तमान में पेशावर (पाकिस्तान) के करीब है। उस काल में यह भाग भारत के उत्तर-पश्चिम में स्थित गांधार जनपद का हिस्सा था। पाणिनी का जीवनकाल 520-460 ईसा पूर्व का माना जाता है।
पाणिनी के ही समकालीन पतंजलि थे। पतंजलि भी उनके ही प्रदेश के रहने वाले थे। पतंजलि ने पाणिनी के अष्टाध्यायी पर अपनी टीका लिखी जिसे 'महाभाष्य' कहा जाता है। इनका काल लगभग 200 ईपू माना जाता है। पतंजलि ने इस ग्रंथ की रचना कर पाणिनी के व्याकरण की प्रामाणिकता पर अंतिम मोहर लगा दी थी। महाभाष्य व्याकरण का ग्रंथ होने के साथ-साथ तत्कालीन समाज का विश्वकोश भी है।
पाणिनी को उनके भाषा-व्याकारण के लिए जाना जाता है। संस्कृत का व्याकरण उन्होंने ही लिखा था। उनका अनुसरण करके ही दुनिया की सभी भाषाओं का व्याकरण निर्मित हुआ है। उन्होंने व्याकरण का एक ग्रंथ लिखा है जिसका नाम अष्टाध्यायी है। 550 ईपू रचित 8 अध्यायों में फैले 32 पदों के तहत पिरोए गए 3,996 सूत्रों वाले इस ग्रंथ ने दुनिया की सभी भाषाओं को समृद्ध ही नहीं किया बल्कि ज्ञान की कई और बातों का भी खुलासा किया है। पाणिनी ने अष्टाध्यायी ग्रंथ की रचना के दौरान उन सभी तकनीकों का समावेश किया, जो ग्रंथ को स्मृतिगम्य यानी याद करने में आसान बना सकती थी। आचार्य पाणिनी ने शब्द बनाए नहीं हैं, बल्कि उनके बनने की विधि व प्रक्रिया को सिखाया है।
पाणिनी के 'अष्टाध्यायी' में भाषा-व्याकरण के साथ ही तत्कालीन लोकाचार का भी संक्षिप्त वर्णन मिलता है। इसके अलावा उसमें विभिन्न पकवानों का भी जिक्र है। पाणिनी के काल में 25 मन का बोझ 'आचित' कहलाता था और जो रसोइया इतने अन्न का प्रबंध संभाल सके, उसे 'आचितक' कहते थे। पाणिनी ने 'अष्टाध्यायी' में 6 प्रकार के धान का भी उल्लेख किया है- ब्रीहि, शालि, महाब्रीहि, हायन, षष्टिका और नीवार। पाणिनी के काल में मैरेय, कापिशायन, अवदातिका कषाय, कालिका नामक मादक पदार्थों का प्रचलन था।
आओ जानते हैं कि पाणिनी ने ऐसे कौन से लजीज पकवानों की चर्चा की है, जो उनके काल में प्रचलित थे।
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यावक : पाणिनी ने लिखा है कि उत्तरी राजस्थान के साल्व जनपद में 'यवागू' (जौ की लप्सी) खाने की प्रथा थी। जौ को ओखल में कूटकर पानी में उबाला जाता और फिर दूध-शकर मिलाकर 'यावक' नामक व्यंजन बनाया जाता।
चरक संहिता में लिखा है-
अन्ने पंचगुने साध्यं विलेपीनु चतुर्गुणे,
मंडश्च्तुर्दाशगुणे यवागू: षडगुणेsम्भसी।।
अर्थात : अन्न के 5 गुने जल में बनाई लप्सी पानयोग्य पदार्थ को 'यवागू' या पेय कहते हैं। जो यवागू, पिप्पली, पिप्पली मूल (पीपलामूल), चवी (चव, चविका), चित्रक (चिता) और नागर (सोंठ) इन औषधियों के साथ बनाकर तैयार की जाती है। यह जठराग्नि को तृप्त करती है और पेट में उठने वाले दर्द को शांत करती है।
औषधि हेतु तरल यवागू 3 प्रकार की होती हैं- पेय, माण्ड और विलेपी या लप्सी। यह पेट के लिए अत्यंत ही लाभदायक है।
* पेय : 10 ग्राम सोंठ और 10 ग्राम पीपल की पोटली बना लें। 50 ग्राम जौ या गेहूं का दलिया लेकर 120 मिलीलीटर पानी में पकाएं और पोटली को पानी में लटका दें। आधा पानी शेष रहने पर उतार लें और रोगी को पिलाएं।
* चावल का पानी या माण्ड : 10 मिलीलीटर की मात्रा में चावल का पानी लें और फिर इसे 140 मिलीलीटर पानी में औटाएं। चौथाई पानी बचने पर रोगी को सेवन कराएं।
* विलेपी या लप्सी : 10 ग्राम चावल के आटे में 40 मिलीलीटर पानी मिलाकर आग पर औटाएं। जब यह पककर लप्सी बन जाए तो उतार लें और रोग में इसका इस्तेमाल करें।
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पीठा : सत्तू को पानी में घोलकर नमक डालकर सेंका जाता है तो 'पिष्टक' बनकर तैयार हो जाता है। आज इसे ही 'पीठा' कहते हैं। पाणिनी ने अपने अष्टाध्यायी में इसका उल्लेख किया है।
हालांकि आजकल पीठा कई तरह से बनाया जाता है। पुराने समय में सत्तू ही होता था। आजकल कई प्रकार से यह बनाया जा सकता है।
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अपूप : अपूप वैसे तो एक औषधि का नाम है, लेकिन मालपुए को भी 'अपूप' कहते हैं। 'अपूप' भारत की सबसे प्राचीन मिठाई है जिसका उल्लेख ऋग्वेद में भी मिलता है। ऋग्वेद में घृतवंत अपूपों का वर्णन है।
पाणिनी के काल में पूरनभरे अपूप ब्याह-बारात, तीज-त्योहार पर खूब बनाए जाते थे। आज भी इसका प्रचलन है। जहां तक सवाल हलवे का है तो पहले इसे 'संयाव' कहा जाता था। मालपुए अक्सर होली और दीपावली के दिन बनाए जाते हैं।
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दही से बने पकवान : पाणिनी के काल में उन सभी खाद्य पदार्थों को 'दाधिक' कहा जाता था जिनमें या तो दही का उपयोग होता था या जो दही से बने होते थे। हालांकि पाणिनी ने इन सभी दाधिकों को भी अलग-अलग विश्लेषित किया है।
जैसे यदि दही के साथ पूरियां खाई जाएं तो वे उसे 'दध्ना संसृष्टं' कहते हैं। यदि दही में पकौड़ी भिगो दी जाए तो वह 'दध्ना उपसिक्तम्' कहलाती है और यदि दही के साथ आलू पकाए जाएं तो उस व्यंजन को 'दध्ना संस्कृतं' कहते हैं।