एन्जॉय

फाँस

Webdunia
- विभा वीरेन्द्र जै न
ND

बात बरसात के मौसम की है। 6 घंटे में 10 इंच वर्षा। लगभग 60 वर्षों बाद ऐसी रिकॉर्डतोड़ वर्षा सुनी थी। आसपास की अन्य कॉलोनिया ँ, जो ऊँचाई पर स्थित है ं, से भी पानी बहकर आ रहा था और हमारी कॉलोनी में चारों तरफ पानी ही पानी भर गया था। कई घरों में लोग बर्तनों से पानी उलीचकर फेंक रहे थे। हमारे घर से बाहर सड़क पर लगभग कमर तक पानी था। बारिश थी कि थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। बादल फट पड़े थे जैसे ।

उस दिन मेरे पति भी शहर से बाहर थे। मैं व बच्चे घर के अंदर बहुत मानसिक तनाव से गुजर रहे थे। पूरे पोर्च में पानी भर चुका था और पानी हमारे बेडरूम की खिड़की तक आने लगा थ ा, जहाँ इन्वर्टर की बैटरी लगी थी। मन अनजानी शंका-कुशंका से डर रहा था। तभी दोनों बेटे बोले- 'हम इन्वर्टर का प्लग निकाल देते है ं, वरना बैटरी खराब हो जाएगी और व्यर्थ नुकसान हो जाएगा ।' मेरे मना करने पर भी वे नहीं माने और प्लग निकाल दिया। जैसे ही प्लग निकाल ा, बिजली गुल हो गई ।

इधर मूसलधार बारिश और ऊपर से घनघोर अँधेरा मन को डराने के लिए बहुत था। घर में इन्वर्टर होने की वजह से मोमबत्ती भी न के बराबर थी। कहीं पानी के जरिए कोईजहरीला जंतु ही न आ जा ए, यह सोचकर मन और डर जाता था। घर में अन्य स्थानों से भी पानी बराबर बहकर आ रहा था और बच्चे उसे वायपर से निकाल रहे थे। मैंने सोच ा, जब हमारे पक्के मकान का ये हाल है तो कच्चे घरों का क्या हाल होग ा? दरअस ल, हमारे यहाँ मकान का काम चल रहा था जिसकी देखरेख के लिए सामने झोपड़ी में चौकीदा र, उसकी पत्नी व तीन बच्चे रह रहे थे। वे भी झोपड़ी छोड़कर हमारे घर आ गए थे ।
  मैं व बच्चे घर के अंदर बहुत मानसिक तनाव से गुजर रहे थे। पूरे पोर्च में पानी भर चुका था और पानी हमारे बेडरूम की खिड़की तक आने लगा था, जहाँ इन्वर्टर की बैटरी लगी थी। मन अनजानी शंका-कुशंका से डर रहा था।      

अब उन्हें आश्रय देने का दायित्व भी हमारा ही था। हमने उन्हें रात गुजारने के लिए कमरा व पलंग एवं चादर आदि दे दिए। ये लोग पलंग व कुर्सियों पर बैठकर रात काटने लगे। घर में अंदर पानी बह रहा था। जितना निकाल पाए निकाल ा, फिर थककर हम सब भी एक पलंग पर बैठ गए और अनवरत ईश्वर के नाम का जाप करने लगे ।

करीब 11 बजे रात को बारिश में कमी आई और पानी उतरने लगा। 2-3 घंटे बाद हमने राहत की साँस ली और ईश्वर का धन्यवाद कर सो गए। सुबह सब कुछ शांत था। जब मैं अपनी पड़ोसन को आपबीती सुना रही थी कि कल रात हमने बहुत परेशानी में गुजारी। इस पर वह कहने लगी- 'अच्छा! हमने तो कल पानी में बहुत एन्जॉय किया ।

मुझे तो वैसे भी पानी देखने में खूब मजा आता है ।' मेरा मुँह छोटा-सा हो गया। मैं सोचने लगी कि क्या एक की तकलीफ दूसरे की खुशी का साधन बन सकती है। उनका घर ऊँचाई पर होने से वे सुरक्षित थे। रात को तो उनसे मदद की कोई अपेक्षा न थ ी, लेकिन सुबह मेरे बताने पर भी क्या वे मुझे सांत्वना देकर ढाँढस नहीं बँधा सकती थी ं? उनकी इस मानसिकता ने गहरी फाँस चुभा दी।
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