जीलगोरा पो.आ.
जिला मानभू म, बिहा र
20 अप्रै ल, 1939
|
|
आपक ा
सुभा ष
20 अप्रै ल, 1939
राजको ट
सुभाष
नई दिल्ली
30 मार् च, 1939
प्रिय सुभा ष,
अपने तार का जवाब पाने की खातिर मैंने तुम्हारे 25 ता. के पत्र का उत्तर देने में देर की है। सुनील का तार कल रात को मिला। अब प्रात:काल की प्रार्थना के समय से पहले उठकर यह उत्तर लिख रहा हूँ।
चूँकि तुम्हारे खयाल में पंडित पन्त का प्रस्ताव अनियमित था और कार्यसमिति संबंधी कलम स्पष्ट रूप में अवैधानिक और नाजायज ह ै, इसलिए तुम्हारा मार्ग नितान्त स्पष्ट है। समिति का तुम्हारा चुनाव अबाधित होना चाहिए।
इसलिए इस विषय में तुम्हारे कई प्रश्नों को मेरे उत्तर की जरूरत नहीं।
जब हम फरवरी में मिले थे तब से मेरी राय मजबूत हुई है कि जहाँ मौलिक बातों पर मतभेद ह ो, जैसा हम सहमत थे कि है ं, वहाँ मिली-जुली समिति हानिकारक होगी। इसलिए यह मानकर कि तुम्हारी नीति को महासमिति के बहुमत का समर्थन प्राप्त ह ै, तुम्हें बिलकुल उन्हीं लोगों की बनी हुई कार्यसमिति रखनी चाहि ए, जो तुम्हारी नीति में विश्वास करते हैं।
हा ँ, मैं उसी विचार पर कायम हू ँ, जो मैंने हमारी फरवरी की मुलाकात में सेगाँव में प्रकट किया था कि मैं किसी भी प्रकार से तुम्हारे आत्मदमन में भागीदार होने का अपराधी नहीं बनूँगा। स्वेच्छापूर्वक आत्मविलय दूसरी चीज है। किसी ऐसे विचार को दबा लेन ा, जिसे तुम देशहित के लिए प्रबल रूप में रखते ह ो, आत्मदमन होगा। इसलिए अगर तुम्हें अध्यक्ष के रूप में काम करना है तो तुम्हारे हाथ खुले रहने चाहिए। देश के सामने जो परिस्थिति ह ै, उसमें किसी मध्यम मार्ग की गुंजाइश नहीं है।
जहाँ तक गाँधीवादियों का संबंध है (यदि इस गलत शब्द का प्रयोग करें तो) वे तुम्हें बाधा नहीं पहुँचाएँगे। जहाँ संभव होग ा, तुम्हारी सहायता करेंगे और जहाँ सहायता नहीं कर सकेंग े, वहा ँ, अलग रहेंगे। अगर वे अल्पमत में हैं तब तो कुछ भी कठिनाई नहीं होनी चाहिए। जहाँ वे स्पष्ट बहुमत में होंगे वहाँ शायद वे अपने आपको दबाकर न रख सकें।
लेकिन मुझे जिस चीज की चिंता है वह यह हकीकत है कि काँग्रेस के मतदाता फर्जी हैं और इसीलिए बहुमत और अल्पमत का पूरा अर्थ नहीं रह जाता। फिर भी जब तक काँग्रेस की भीतरी सफाई नहीं हो जाती तब तक जो हथियार हमारे पास फिलहाल है उसी से काम चलाना होगा। दूसरी ची ज, जिससे परेशानी ह ै, वह है हमारा आपसी भयंकर अविश्वास। जहाँ कार्यकर्ताओं में परस्पर अविश्वास हो वहाँ मिल-जुलकर काम करना असंभव हो जाता है।
मेरे खयाल से तुम्हारे पत्र के और किसी मुद्दे का जवाब देने की आवश्यकता नहीं है।
जो कुछ करो भगवान से मार्गदर्शन लेते रहो। डॉक्टरों की आज्ञाओं का पालन करके जल्दी अच्छे हो जाओ।
प्या र,
बापू
जहाँ तक मेरा संबंध ह ै, हमारे पत्र व्यवहार को प्रकाशित करने की जरूरत नही ं, परंतु तुम्हारा दूसरा विचार हो तो छापने की मेरी इजाजत है।
सभी पत्र राजशेखर व्यास की पुस्तक 'सुभाषचंद्र बोस- कुछ अधखुले पन्ने' से साभार