विदेशी ईसाई महिला गुरु एनी बेसेंट और भारत, जानिए रहस्य की बात

अनिरुद्ध जोशी
शनिवार, 30 सितम्बर 2023 (14:42 IST)
Annie besant: एनी बेसेंट जयंती: एक विदेशी ईसाई महिला जब भारत में रहने लगी तो उन्होंने स्वयं को कभी विदेशी नहीं समझा। हिन्दू धर्म पर व्याख्‍यान से पूर्व वह 'ॐ नम: शिवाय' का उच्चारण करती थीं। 1 अक्टूबर 1847 को उनका लंदन में जन्म हुआ और 20 सितंबर 1933 को उनका निधन हुआ था। आओ जानते हैं उनके बारे में 10 दिलचस्प बातें।
 
1866 को एनी को धार्मिक, आध्यात्मिक, रहस्यवाद की पुस्तकें पढ़ने का शौक हुआ। उसी दौरान ईसा के प्रति लगाव हुआ। 1867 को युवा अंग्रेज पादरी फ्रैंक बेसेंट से उनका विवाह हो गया। पति कट्टर रोमन कैथोलिक थे लेकिन एनी रूढ़िगत विचार नहीं स्वीकारना चाहती थी। इसी कारण वैचारिक मतभेद के चलते विवाह-सम्बन्ध कटुता के चलते विच्छेद हो गए। 1868-70 के मध्य एक पुत्र और एक पुत्री को जन्म दिया।
 
'फ्रूट्स ऑफ फिलॉसफी' लेख में 'बर्थ-कन्ट्रोल' परिवार-परिसीमन पर लेख लिखकर समाज-सुधार की पक्षधर एनी द्वारा धर्म की अवज्ञा की गई। इस विद्रोहीपन के कारण पति द्वारा उत्पीड़न के चलते 1873 में उनका तलाक हो गया। धर्म विरुद्ध लेख लिखने पर मुकदमा चला। न्यायाधीश उनके तर्कों से सहमत थे पर जूरी नहीं। दंड को अपील में माफ कर दिया गया और न्यायालय ने पुत्री दे दी, पर पुत्र छीन लिया।
 
विश्व और मानव समाज को उन्नत करने की अदम्य प्रेरणा के चलते श्रीमती स्टेड के माध्यम से 'थियोसॉफी' से परिचय हआ। 1888 को श्रीमती स्टेड द्वारा 'रिव्यू और रिव्यूज' के लिए पुस्तक समालोचना लिखने के लिए मादाम ब्लावाटस्की की दो पुस्तकें दीं। एनी बेसेन्ट इन्हें पढ़कर बहुत प्रभावित हुईं। 1889 को मादाम ब्लावाटस्की से मिलीं। मादाम ब्लावाटस्की ने एनी बेसेन्ट को थियोसॉफिकल सोसायटी के उद्देश्य बताए। उनके उद्देश्य सुनकर 21 मई को थियोसॉफिकल सोसायटी में वे प्रविष्ट हो गईं। 1907 को थियोसॉफिकल सोसायटी की अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष चुनी गईं। थियोसॉफी की खास बात यह थी कि इनसे विश्वविख्यात दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति जुड़े हुए थे।
 
अध्ययन, सर्वधर्म समभाव की, ज्ञानगुरु भारत की ओर आकर्षित होने के कारण उन्हें लगा कि मेरा कर्मक्षेत्र भारत ही हो सकता है। 16 नवम्बर 1893 को भारत के तूतिकोरन बंदरगाह पर उतरीं। दिसंबर में मद्रास में थियोसॉफिकल सोसायटी में 'द बिल्डिंग ऑफ कस्मास' पर भाषण। 1894 को इंडियन नेशनल कांग्रेस में प्रथम बार भाषण। फिर भारत भ्रमण। 1896 को थियोसॉफिकल सोसायटी के 21वें कन्वेंशन में हिन्दू, पारसी, बौद्ध और ईसाई चार धर्मों पर भाषण। 1901 को थियोसॉफिकल सोसायटी के 26वें कन्वेंशन में चार और धर्मों सिख, इस्लाम, जैन और थियोसॉफी पर भाषण। बाद में 'सेवेन ग्रेट रेलिजन्स' पुस्तक छपी।
 
1895 जनवरी माह में वाराणसी आईं। यहां उन्हें लगा जैसे अपने घर आ गईं। वाराणसी में संस्कृत सीखी। 'गीता' का अनुवाद किया। 1897 को 'चार महान् धर्म' नामक पुस्तक प्रकाशित हुई। 1898 को वाराणसी में सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज की स्थापना। कमच्छा स्थित थियोसॉफिकल सोसायटी कैम्पस में 'शान्तिकुंज' आवास बनाया, पास ही स्थित बंगला खरीदा और इसे 'ज्ञान-गेह' नाम दिया जहां इस समय बेसेन्ट थियोसॉफिकल स्कूल है। डॉ. भगवान दास, पं. मदन मोहन मालवीय आदि विद्वानों के सम्पर्क में आईं।
 
सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज पत्रिका निकाली (मासिक), बालचर संस्था (बाद में स्काउट एंड गर्ल गाइड) स्थापित की। 1904 को सेन्ट्रल हिन्दू गर्ल स्कूल की स्थापना। 'ब्रदर्स ऑफ इण्डिया' की स्थापना। 'वेक अप इण्डिया' पुस्तक प्रकाशित। 'समाज सुधार' हेतु 'ब्रदर्स ऑफ सर्विस' संस्था की स्थापना। व्यावहारिक ज्ञान देने हेतु 'यंग मैन्स इण्डिया लीग' और 'सन्स ऑफ इंडिया' संस्थाओं की स्थापना।
 
1913 को राजनीति में प्रवेश करने के बाद पं. मदन मोहन मालवीय को विश्वविद्यालय बनाने के लिए सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज की जमीन-जायदाद सब कुछ अर्पित कर दिया और उनके विश्वविद्यालय बनाने के काम में सक्रिय रूप से सहायक बनीं। 1914-15 को संसदीय कार्यों की व्यावहारिक शिक्षा हेतु मद्रास में 'पार्लियामेंट' की स्थापना। बम्बई में कांग्रेस के नेताओं की बैठक आयोजित कर इंडियन होमरूल के लिए आंदोलन करने को कहा। कांग्रेस इसके लिए तैयार नहीं हुई तो उन्होंने स्वयं इस कार्य को अपने हाथ में लिया। 1916 को 'होमरूल लीग' की स्थापना और होमरूल आंदोलन का श्रीगणेश।
 
'न्यू इंडिया' की जमानत जब्त। 'बम्बई तथा सेंट्रल प्रोविंसेज में प्रवेश पर रोक। 1917 को जून में उटकमंड (मद्रास) में अरंडेल, वाडिया आदि के साथ गिरफ्तार और नजरबन्द। मद्रास के गवर्नर द्वारा राजनीति त्यागने का अनुरोध, बेसेन्ट का उत्तर 'मेरी राजनीति ही मेरी थियोसॉफी है।' अगस्त माह में इंडियन नेशनल कांग्रेस की अध्यक्ष निर्वाचित, वार्षिक कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में 'द केस फॉर इंडिया' भाषण। उन्होंने कांग्रेस को नया रूप दिया।
 
1920 में गांधीजी के सत्याग्रह आंदोलन का स्वागत तथा विरोध। व्यक्तिगत सत्याग्रह का समर्थन, पर सामूहिक सत्याग्रह और कानून तोड़ने का विरोध। उन्होंने कहा कि उससे हिंसा भड़क सकती है और तब उसका संचालन नेताओं के हाथ से निकल जाएगा। उन्होंने कहा कि कि जब भारत स्वतंत्र हो जाएगा तब यही सत्याग्रह और आंदोलन बहुत कष्टप्रद सिद्ध होगा।
 
जितनी रहस्यमय महिला ब्लावाटस्की थीं उतनी ही एनी भी। एनी चाहती थीं कि जे. कृष्णमूर्ति में भगवान बुद्ध की चेतना उतर आए और जैसा कि बुद्ध ने मैत्रेय नाम से पुन: आने का वादा किया था तो उक्त माध्यम से वे अपना संदेश सुनाकर अपने वादे से मुक्त हो जाएं। इसके लिए कठिन साधनाएं और कार्य किए गए। इस कार्य में अनेक बाधाएं उत्पन्न हुईं। अंतत: यह पूरा आंदोलन असफल हुआ। 24 दिसंबर 1931 को अड्यार में अपना अंतिम भाषण दिया। 20 सितंबर 1933 को शाम 4 बजे, 86 वर्ष की अवस्था में, अड्यार, चेन्नई में देह त्याग दी।
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