रहस्यदर्शी माँ ब्लावाट्स्की

अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
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थियोसोफी तथा थियोसोफिकल सोसायटी की संस्थापिका मादाम हैलीना ब्लावाट्स्की ( Helena Petrovna Blavatsky) एक रहस्यदर्शी थीं। वह अतीत और भविष्य दोनों को क्षण में ही जानने की क्षमता से संपन्न थीं। दुनिया भर के धर्म और उनकी परंपरा से जुड़ी ब्लावाट्स्की ने भारतीय धर्म और दर्शन के मर्म को समझकर भारतीयों को आध्यात्मिक रूप से जगाने का प्रयास किया। भारत इनका ऋणी है।

किसी लेखक ने कहा था कि भारतीयों को अपने इतिहास और दर्शन की जानकारी नहीं है इसीलिए उनमें भारतीय होने का गौरव बोध भी नहीं है और यही कारण रहा कि भारत बिखराव का एक लंबा दौर चलता रहा। भारत से बाहर ‍जितने भी रहस्यदर्शी हुए हैं उन्होंने भारत और भारतीय ऋषियों के दर्शन की सच्चाई और क्षमता को पहचाना है। धर्म या आध्यात्म कहीं हैं तो वह सिर्फ भारत में है। उक्त रहस्यर्शियों में से एक थीं ब्लावाट्स्की।

दक्षिण रूस के यूक्रेन प्रदेश स्थित एकाटरीनो स्लाव में 12 अगस्त, 1831 को हैलीना पैट्रोवना का जन्म रूसी फौज के एक प्रतिष्ठित उच्चाधिकारी, कर्नल पीटर वानहान के परिवार में हुआ था। उनकी माँ प्रख्यात उपन्यासकार हैलीना आंद्रेयेवना थीं, जो उन्हें 11 वर्ष की आयु में छोड़ कर दिवंगत हो गई।

इसलिए वे बचपन में अपने नाना प्रिवी काउंसिलर आद्रे-डि-फादेयेव तथा नानी राजकुमारी हैलीना पावलोवना डोलगोरुकोव की देखरेख में पली-बढ़ी। सारतोव व तिफ्लिस (काकेशस) में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की। बचपन से ही उनकी मानसिक शक्तियाँ एवं पारलौकिक ज्ञान अद्भुत ढंग से विकसित होने लगा था।

 
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1849 में उन्होंने अपने से काफी बड़ी आयु के सरकारी उच्चाधिकारी निकिफोर ब्लावाट्स्की से 18 वर्ष की ही आयु में विवाह कर लिया था किंतु वासनामय दाम्पत्य जीवन उन्हें रास नहीं आया। हर समय आध्यात्मिक चिंतन एवं ब्रह्मांड के गूढ़ रहस्यों के बारे में चिंतन करने वाली हैलीना पैट्रोना विवाह के तुरंत बाद ही पति को हमेशा के लिए छोड़ कर पिता के घर लौट गईं और फिर बाद में कही दोबारा शादी नहीं की।

ब्लावाट्स्की ने भारत में अंतरराष्ट्रीय थियोसॉफिकल सोसाइटी का मुख्यालय स्थापित किया था। अपने विश्व भ्रमण के दौरान 1852 में वे पहली बार भारत आई और यहाँ थोड़े दिन रुककर ऋषि परंपरा वाले ब्रह्मज्ञान की संपन्नता से अवगत होकर चली गई थीं।

1855 के दिसंबर में, जापान से वापसी पर 1855 से 1857 के मध्य उन्होंने दोबारा भारत का भ्रमण करके यहाँ के अध्यात्म एवं धर्मग्रंथों के बारे में जानकारी प्राप्त की। तीसरी बार 1868 में उन्होंने 37 वर्ष की आयु में भारत व तिब्बत की यात्रा की।

8 सितंबर, 1875 को न्यूयॉर्क में थियोसॉफिकल सोसाइटी का गठन करने के बाद वे 1878 के अंत में चौथी बार भारत आईं तो अपने सहयोगी कर्नल ऑलकॉट के साथ मुंबई में सोसाइटी का कार्यालय स्थापित कर उसके प्रचार-प्रसार के लिए ‘द थियोसॉफिट’ नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया।

19 दिसंबर, 1882 में उन्होंने थियोसॉफिकल सोसाइटी का अंतरराष्ट्रीय कार्यालय मद्रास (चेन्नई) के अड्यार क्षेत्र में स्थानांतरित किया। उसके बाद सोसाइटी का व्यापक प्रचार-प्रसार शुरू हो गया। 32 वर्षों तक सारे विश्व का भ्रमण करके उन्होंने भारत को ही थियोसॉफिकल सोसाइटी का मुख्य केंद्र बनाया। अपने 32 वर्ष विश्व भ्रमण के काल में उन्होंने कुल मिलाकर लगभग 10 वर्ष भारत में बिताए।

ब्लावाट्स्की की निजी मुहरमैडम ब्लावाट्स्की ने 20 फरवरी, 1884 को कर्नल ऑलकॉट के साथ सोसाइटी के प्रचार-प्रसार हेतु यूरोप गईं। वहाँ के कई देशों में काम करने के बाद वे लंदन पहुँची और वहाँ से 1884 के अक्टूबर में रवाना होकर 21 दिसंबर को अड्यार लौट आईं। 1885 के आरंभ में वे बहुत बीमार हो गईं। फरवरी में उन्हें यूरोप में इलाज कराने तथा वहाँ काम करने के लिए भारत से हमेशा के लिए प्रस्थान करना पड़ा।

यूरोप में थियोसॉफिकल का काम आगे बढ़ाने ‍के लिए लंदन में ‘ब्लावाट्स्की लॉज’ नाम से अपना आवास बनाकर, 1857 के सितंबर से उन्होंने अपना दूसरा मासिक पत्र ‘लूसिफर’ का प्रकाशन शुरू कर दिया।

1888 में ‘दि सीक्रेट डॉक्टिन’ नामक उनका 1500 पृष्ठों का ग्रंथ लंदन से प्रकाशित हुआ। 1889 में उन्होंने ‘द वॉइस ऑफ साइलेंस’ तथा ‘दि की टू थियोसॉफी’ नामक दो पुस्तकें प्रकाशित कीं। गूढ़ विद्या का एक विचार केंद्र ‘इसोटरिक स्कूल’ नाम से 1888 में शुरू करने के बाद लंदन में ही उन्होंने 1890 में यूरोप मुख्यालय की स्थापना की।

8 मई, 1891 को उन्होंने लंदन में अंतिम साँस लीं। उनके शिष्यों का मानना है कि उनकी महान आत्मा ने अपने को छोड़ कर युवा दलाई लामा की देह में प्रवेश किया। उल्लेखनीय है कि ब्लावाटस्की की शिष्या थीं एनी बेसेंट।
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