संत सूरदास जयंती : सूरदास के दोहे और रचनाएं

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हिंदी साहित्य में संत सूरदास (Saint Surdas) का नाम प्रमुख कवियों में शामिल है। वे भगवान श्री कृष्ण के परम भक्त थे और उन्होंने कृष्ण भक्ति में अपना पूरा  जीवन समर्पित कर दिया था। तिथि के अनुसार वैशाख महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी को संत सूरदास का जन्म दिवस मनाया जाता है।

उनका जन्म दिल्ली के पास सीही नाम के गांव में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। सूरदास जन्म से ही अंधे थे, उन्होंने कृष्ण लीला को अपने काव्य का विषय बनाया तथा उन्हें हिन्दी के अनन्यतम और ब्रजभाषा के आदि कवि भी कहा जाता है। 
 

संपूर्ण भारत में मध्ययुग में कई भक्त कवि और गायक हुए लेकिन सूरदास का नाम उन सभी में सर्वाधिक प्रसिद्ध और महान कवि के तौर पर लिया जाता है। उनकी लोकप्रियता इस बात का प्रमाण है कि एक अंधे भक्त गायक का नाम भारतीय धर्म में इतने आदर से लिया जाता है। वे 'सूरसागर' के रचयिता है। 

आइए यहां जानते हैं उनके कुछ खास दोहे और रचनाएं : 
 
कवि सूरदास जी के खास काव्य पद- 
 
छांड़ि मन हरि-विमुखन को संग।
जाके संग कुबुधि उपजति है, परत भजन में संग।।
कागहि कहा कपूर चुगाये, स्वान न्हवाये गंग।
खर को कहा अरगजा लेपन, मरकट भूषन अंग।।
पाहन पतित बान नहि भेदत, रीतो करत निषंग।
'सूरदास' खल कारि कामरि, चढ़ै न दूजो रंग।।
 
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सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरूवनि चलत रेनु-तन-मंडित, मुख दधि लेप किए।।
चारू कपोल, लोल लोचन, गोरोचन-तिलक दिए।
लट-लटकनि मन मत्त मधुप-गन, मादक मधुहिं पिए।।
कठुला-कंठ, वज्र केहरि-नख, राजत रुचिर हिए।
धन्य सूर एको पल इहिं सुख, का सत कल्प जिए।।
 
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किलकत कान्ह घुटुरूवनि आवत।
मनिमय कनक नंद कैं आंगन, बिम्ब पकरिबैं धावत।।
कबहुं निरखि हरि आपु छांह कौं, कर सौं पकरन चाहत।
किलकि हंसत राजत द्वै दतियां, पुन-पुन तिहिं अवगाहत।।
कनक-भूमि पर कर-पग-छाया, यह उपमा इक राजति।
प्रतिकर प्रतिपद प्रतिमान वसुधा, कमल बैठकी साजति।।
बाल-दसा-सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नंद बुलावति।
अंचरा तर लै ढांकि, सूर के प्रभु कौं दूध पियावति।।
 
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है हरि नाम कौ आधार।
और इहिं कलिकाल नाहिंन रह्यौ बिधि-ब्यौहार॥
नारदादि सुकादि संकर कियौ यहै विचार।
सकल स्रुति दधि मथत पायौ इतौई घृत-सार॥
दसहुं दिसि गुन कर्म रोक्यौ मीन कों ज्यों जार।
सूर, हरि कौ भजन करतहिं गयौ मिटि भव-भार॥
 
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कब तुम मोसो पतित उधारो।
पतितनि में विख्यात पतित हौं पावन नाम तिहारो॥
बड़े पतित पासंगहु नाहीं, अजमिल कौन बिचारो।
भाजै नरक नाम सुनि मेरो, जमनि दियो हठि तारो॥
छुद्र पतित तुम तारि रमापति, जिय जु करौ जनि गारो।
सूर, पतित कों ठौर कहूं नहिं, है हरि नाम सहारो॥
 
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मेरौ मन अनत कहां सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज को पंछी, फिरि जहाज पर आवै।।
कमल-नैन कौ छांड़ि महातम, और देव कौ ध्यावै।
परम गंग कौं छांड़ि पियासौ, दुरमति कूप खनावै।।
जिहि मधुकर अंबूज-रस-चाख्यौ, क्यों करील-फल भावै।।
सूरदास प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै।।
 
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