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स्वामी श्रद्धानन्द जयंती : सिक्खों के अधिकारों और देशसेवा के बदले मिली गोली, जानिए 5 खास बातें

अनिरुद्ध जोशी
22 फरवरी को स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती की जयंती है। उनका जन्म 22 फरवरी 1856 को पंजाब के जालंधर जिले के तलवान ग्राम में एक कायस्थ परिवार में हुआ था और उनका निर्वाण 23 दिसंबर 1926 को दिल्ली के चांदनी चौक में हुआ था। स्वामी श्रद्धानंद का मूल नाम मुंशीराम था। कुछ लोगों का मानना है कि उनका जन्म 2 फरवरी सन् 1856 को फाल्गुन कृष्ण त्र्योदशी, विक्रम संवत् 1913 में हुआ था। आओ जानते हैं उनके जीवन के बारे में खास 05 बातें।
 
 
1. परिचय : श्रद्धानंदजी के पिता, लाला नानक चन्द, ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा शासित यूनाइटेड प्रोविन्स (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में पुलिस अधिकारी थे। उनके बचपन का नाम वृहस्पति और मुंशीराम था, किन्तु मुंशीराम अधिक प्रचलित हुआ। लहौर और जालंधर में उनके पिता मुख्य कार्यस्थल रहे। यहीं आर्य समाज की गतिविधियों में स्वामी जी शामिल होते रहते थे। उनका विवाह श्रीमती शिवा देवी के साथ हुआ था, 35 वर्ष की आयु में ही स्वर्ग सिधार गईं। उस समय उनके दो पुत्र और दो पुत्रियां थीं। स्वामीजी हनुमान भक्त थे।
 
 
2. स्वतंत्रता सेनानी : स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती भारत के शिक्षाविद, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा आर्यसमाज के संन्यासी थे जिन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती की शिक्षाओं का प्रसार किया। भारत में आजादी के आंदोलन में नरम दल और गरम दल से जुड़े नेताओं को ही स्वतं‍त्रता दिवस पर याद किया जाता है परंतु यह बहुत कम ही लोग जानते हैं कि आजादी की अलख जनाने वाले हमारे कई संत थे जिन्होंने सामाजिक उत्थान और आंदोलन के साथ ही स्वतंत्रता आदोलन में भी अपना योगदान दिया है। उन्हीं में से एक नाम है स्वामी श्रद्धानंद। उनका राजनैतिक जीवन रोलेट एक्ट का विरोध करते हुए एक स्वतन्त्रता सेनानी के रूप में प्रारम्भ हुआ। अच्छी-खासी वकालत की कमाई छोड़कर स्वामीजी ने 'दैनिक विजय' नामक समाचार-पत्र में 'छाती पर पिस्तौल' नामक क्रांतिकारी लेख लिखे। 
 
 
3. राष्ट्रवादी संत : स्वामी श्रद्धानंद का जन्म वे भारत के महान राष्ट्रभक्त संन्यासियों में अग्रणी थे। स्वामी श्रद्धानंद ने देश को अंग्रेजों की दासता से छुटकारा दिलाने और दलितों को उनका अधिकार दिलाने के लिए अनेक कार्य किए। पश्चिमी शिक्षा की जगह उन्होंने वैदिक शिक्षा प्रणाली पर जोर दिया। इनके गुरु स्वामी दयानंद सरस्वती थे। उन्हीं से प्रेरणा लेकर स्वामीजी ने आजादी और वैदिक प्रचार का प्रचंड रूप में आंदोलन खड़ा कर दिया था। वे भारत के उन महान राष्ट्रभक्त संन्यासियों में अग्रणी थे, जिन्होंने अपना जीवन स्वाधीनता, स्वराज्य, शिक्षा तथा वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर दिया था। स्वामीजी ने 13 अप्रैल 1917 को संन्यास ग्रहण किया, तो वे स्वामी श्रद्धानन्द बन गए।
 
 
4. महान शिक्षाविद : धर्म, देश, संस्कृति, शिक्षा और दलितों का उत्थान करने वाले युगधर्मी महापुरुष श्रद्धानंद के विचार आज भी लोगों को प्रेरित करते हैं। उनके विचारों के अनुसार स्वदेश, स्व-संस्कृति, स्व-समाज, स्व-भाषा, स्व-शिक्षा, नारी कल्याण, दलितोत्थान, वेदोत्थान, धर्मोत्थान को महत्व दिए जाने की जरूरत है इसीलिए वर्ष 1901 में स्वामी श्रद्धानंद ने अंग्रेजों द्वारा जारी शिक्षा पद्धति के स्थान पर वैदिक धर्म तथा भारतीयता की शिक्षा देने वाले संस्थान 'गुरुकुल' की स्थापना की। हरिद्वार के कांगड़ी गांव में 'गुरुकुल विद्यालय' खोला गया जिसे आज 'गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय' नाम से जाना जाता है।
 
 
5. देश और सिक्खों की रक्षा करने के जुर्म में हुई गिरफ्तारी और हत्या : स्वामी इतने निर्भीक थे कि जनसभा करते समय अंग्रेजी फौज व अधिकारियों को वे ऐसा साहसपूर्ण जवाब देते थे कि अंग्रेज भी उनसे डरा करते थे। कांग्रेस में उन्होंने 1919 से लेकर 1922 तक सक्रिय रूप से महत्त्‍‌वपूर्ण भागीदारी की। 1922 में गुरु का बाग सत्याग्रह के समय अमृतसर में एक प्रभावशाली भाषण दिया। सिक्खों के धार्मिक अधिकार की रक्षार्थ उन्होंने सत्याग्रह किया और 1922 में अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद 23 दिसम्बर 1926 को चांदनी चौक, दिल्ली में उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई।

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