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कौन हैं ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित स्वामी रामभद्राचार्य, राम जन्मभूमि फैसले में निभाई निर्णायक भूमिका

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WD Feature Desk

, शनिवार, 17 मई 2025 (13:57 IST)
Who is Swami Rambhadracharya : हाल ही में नई दिल्ली के विज्ञान भवन में एक ऐतिहासिक क्षण दर्ज हुआ। देश के सर्वोच्च साहित्य सम्मान, 58वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य को सम्मानित किया। यह सम्मान सिर्फ एक साहित्यकार को नहीं, बल्कि एक ऐसे संत, दार्शनिक और शिक्षाविद् को मिला है जिनकी जीवनगाथा किसी चमत्कार से कम नहीं। स्वामी जी की आंखों में भले ही दुनिया को देखने की रोशनी न हो, लेकिन उनके ज्ञान, तपस्या और कृतित्व से उन्होंने भारतीय साहित्य और संस्कृति को एक नई दिशा दी है।

स्वामी रामभद्राचार्य: एक असाधारण जीवनगाथा
14 जनवरी, 1950 को मकर संक्रांति के दिन उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले में सरयूपारी ब्राह्मण परिवार में हुआ था हुआ था। उनके पिता का नाम शचि देवी और पिता का नाम राजदेव मिश्रा था। जगद्गुरु रामभद्राचार्य का असली नाम गिरिधर मिश्रा है. उनके इस नाम के पीछे भी दिलचस्प कहानी है। दरअसल उनके दादा की चचेरी बहन मीरा बाई की भक्त थीं, इसलिए उनका नाम गिरिधर रखा गया। 
उनकी जीवनयात्रा की सबसे हृदयस्पर्शी और प्रेरणादायक बात यह है कि मात्र दो महीने की उम्र में ही वे अपनी आंखों की रोशनी खो चुके थे। आंखों में रोशनी न होने के बावजूद, उन्होंने अपने भीतर ज्ञान का ऐसा प्रकाश प्रज्वलित किया, जिसने उन्हें असाधारण बना दिया।

उनकी स्मरण शक्ति इतनी अद्भुत थी कि पांच वर्ष की अल्पायु में उन्होंने संपूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता को कंठस्थ कर लिया था। सात वर्ष की उम्र तक आते-आते उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की संपूर्ण रामचरितमानस कंठस्थ हो चुकी थी। उनकी इस असाधारण स्मरण शक्ति की तुलना अक्सर स्वामी विवेकानंद से की जाती है, जिन्होंने अपनी अद्भुत बौद्धिक क्षमता से पूरे विश्व को चमत्कृत किया था।

समाजसेवा और साहित्य का संगम: 100 से अधिक ग्रंथों के रचयिता
दृष्टिहीनता कभी उनके मार्ग की बाधा नहीं बनी। स्वामी रामभद्राचार्य ने न केवल स्वयं ज्ञान अर्जित किया, बल्कि उसे समाज में प्रसारित करने का भी बीड़ा उठाया। उन्होंने चित्रकूट में तुलसी पीठ की स्थापना की और विकलांगों के लिए दुनिया का पहला विश्वविद्यालय, जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, स्थापित किया। यह विश्वविद्यालय दिव्यांगजनों को शिक्षा और आत्मनिर्भरता के नए अवसर प्रदान कर रहा है, जो स्वामी जी की दूरदृष्टि और सामाजिक संवेदना का प्रमाण है।

 
स्वामी रामभद्राचार्य का साहित्य में योगदान
उनके साहित्यिक योगदान की बात करें तो, स्वामी रामभद्राचार्य ने 100 से अधिक ग्रंथों की रचना की है। इनमें सबसे उल्लेखनीय है 'प्रस्थानत्रयी' (ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता और 11 उपनिषद) पर उनका संस्कृत टीका, जिसका नाम 'श्रीराघवकृपाभाष्यम' है। यह टीका रामानंद संप्रदाय में 600 वर्षों के बाद दूसरी ऐसी व्याख्या थी, जिसका विमोचन स्वयं तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 1998 में किया था।

पद्म विभूषण और एनी पुरुस्कारों से सम्मानित हैं स्वामी रामभद्राचार्य
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उन्हें उनके महाकाव्य 'श्रीभगवाराघवीयम्' के लिए 2005 में प्रतिष्ठित संस्कृत साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। इस महाकाव्य में परशुराम और राम की कथाओं का अत्यंत सुंदर और गहन चित्रण किया गया है। उनके अप्रतिम योगदान के लिए उन्हें 2015 में देश के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण सहित कई अन्य सम्मानों से नवाजा जा चुका है।

राम जन्मभूमि में निर्णायक भूमिका
स्वामी रामभद्राचार्य का योगदान केवल आध्यात्मिक और साहित्यिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है। उन्होंने राम जन्मभूमि मामले में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सुप्रीम कोर्ट में चल रहे ऐतिहासिक मुकदमे में उन्होंने 441 शास्त्र प्रमाण प्रस्तुत किए। उनकी गहन शास्त्रीय जानकारी और अकाट्य गवाही ने राम मंदिर के पक्ष में निर्णय को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे दशकों पुराना विवाद समाप्त हो सका और अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण संभव हो पाया।

जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य का जीवन यह दिखाता है कि शारीरिक अक्षमता केवल एक धारणा है, और दृढ़ संकल्प, ज्ञान व सेवाभाव से व्यक्ति किसी भी ऊंचाई को छू सकता है। ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलना उनके असाधारण कृतित्व और व्यक्तित्व का एक प्रमाण है, जो भारतीय संस्कृति, साहित्य और समाज सेवा में उनके अमूल्य योगदान को रेखांकित करता है। वे वास्तव में एक 'जीवित किंवदंती' हैं, जिनकी कहानी आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी।

 

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